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[मालारोहण जी
है। उससे भिन्न अन्य कुछ भी आश्रय करने योग्य नहीं है तथा पर के आश्रय से कभी सम्यग्दर्शन या मुक्ति होने वाली नहीं है।
समस्त सिद्धान्त के सार का सार तो बहिर्मुखता छोड़कर अन्तर्मुख होना है।
कोई जीव नग्न दिगम्बर मुनि हो गया, वस्त्र का एक धागा भी नहीं है, परन्तु पर वस्तु यह बाह्य का संयोग, यश पद, धन, वैभव, शरीरादि शुभाचरण मुझे लाभदायी है, ऐसा अभिप्राय है, तब तक उसके अभिप्राय में से तीन लोक की एक भी वस्तु छूटी नहीं है, पर के साथ एकत्व बुद्धि पड़ी है, पर वस्तु मुझे लाभ करती है, ऐसा अभिप्राय बना हुआ है, तब तक यह रत्नत्रय मयी ज्ञान गुणमाला निज शुद्धात्म स्वरूप की ओर दृष्टि नहीं जा सकती, फिर प्राप्त करना तो दुर्लभ ही है।
मोक्ष का मार्ग तो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, स्वरूप है । यह सम्यग्दर्शनादि शुभ भाव रूप मोक्ष अन्तर्मुख द्वारा सधता है, ऐसा भगवान का उपदेश है ।
भगवान ने स्वयं प्रयत्न द्वारा मोक्षमार्ग साधा है और उपदेश में भी यही कहा है कि ज्ञान एवं आनन्दादि अनन्त शक्ति के भंडार ऐसे सत्स्वरूप भगवान निज ज्ञायक आत्मा के आश्रय में जाने पर निर्विकल्प सम्यग्दर्शन होता है।
निर्विकल्प स्वानुभूति की दशा में आनन्द गुण की आश्चर्य कारी पर्याय प्रगट होने से आत्मा के सर्व गुणों का आंशिक शुद्ध परिणमन प्रगट होता है।
हम दूसरों का कुछ भी कर सकते हैं। ऐसा मानने वाला जीव चौरासी के चक्कर में रुलता है। आत्मा तो मात्र ज्ञाता दृष्टा चैतन्य स्वरूप ही है और यह सब आबाल वृद्ध, राजा से रंक, देव मनुष्यादि के अन्तरंग में वह चिदानन्द भगवान आत्मा विराजमान है। सर्व आत्मा परिपूर्ण भगवान हैं। सर्व आत्मा वर्तमान में अनन्त गुणों से भरे हैं परन्तु उसकी प्रतीति न करे, पहिचाने नहीं और जड़ के कर्तव्य को अपना कर्तव्य माने, जड़ के स्वरूप को अपना स्वरूप माने उसे कभी भी यह रत्नत्रय मयी ज्ञान गुणमाला मिलने वाली नहीं है ।
अनादि अनन्त ऐसा जो एक शुद्ध चैतन्य स्वरूप उसके स्व सम्मुख होकर आराधना करना ही रत्नत्रय मालिका और मुक्ति को पाने का उपाय है। अनादि से बाह्य क्रिया कांड में लोगों की रुचि होने से यह सत्य धर्म निज
गाथा क्रं. २१-२२]
शुद्धात्म स्वरूप छूट गया है। जो स्वयं अनन्त गुण निधान अनन्त चतुष्टय का धारी सर्वज्ञ स्वभावी भगवान आत्मा है, इसको जाने बिना लोग बाह्य में धर्म करना चाहते हैं। शुभाचरण पुण्य को धर्म मानते हैं, पुण्य की विभूति को हितकारी लाभदायक मानते हैं। दया, दान, पूजा, पाठ, नियम, संयम से भला होना मानते हैं। साधु बनना धर्म मानते हैं, यह सब शुभाचरण पुण्य बन्धका कारण है। एक मात्र अपना चैतन्य स्वरूप शुद्ध स्वभाव ही धर्म है । जिनवाणी में मोक्षमार्ग का कथन दो प्रकार से है। अखंड आत्म स्वभाव
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के अवलम्बन से सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, रूप मोक्षमार्ग प्रगट होता है, वह सच्चा मोक्षमार्ग है और उस भूमिका में जो महाव्रतादि का राग विकल्प है वह मोक्षमार्ग नहीं है किन्तु उसे उपचार से मोक्षमार्ग कहा है। जैसे अपने को कहीं जाना है तो बस या रेल साधन है, साध्य नहीं है। इसी प्रकार आत्मा में वीतराग शुद्धि रूप जो निश्चय मोक्षमार्ग प्रगट हुआ, वह सच्चा शुद्ध उपादान रूप यथार्थ मोक्षमार्ग है और उस काल वर्तते हुये, व्रत, नियम, संयम, आदि शुभ राग को वह सहचर तथा निमित्त होने से मोक्षमार्ग कहना उपचार है। जिन दर्शन की महत्ता यह है कि मोक्ष के कारण भूत निश्चय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादि शुद्ध भावों का होना ही जैन धर्म है।
राग को, पुण्य को धर्म मानने वाला तो मिथ्यादृष्टि संसारी है। सर्वज्ञ भगवान ने ऐसा कहा है कि जो पुण्य को धर्म मानता है वह मात्र भोग की ही इच्छा रखता है क्योंकि पुण्य के फल से तो स्वर्गादिक के भोगों की ही प्राप्ति होती है इसलिये जिसे पुण्य की भावना है तथा वैभव आदि में सुख की कल्पना है, उसे भोग की ही अर्थात् संसार की ही भावना है किन्तु मोक्ष की भावना नहीं है।
आत्मा अचिन्त्य सामर्थ्यवान है। इसमें अनन्त गुण स्वभाव है। रत्नत्रय मयी है, अर्थात् परम सुख, परम शान्ति, परमानन्द का भंडार है । उसकी रुचि हुये बिना उपयोग पर में से हटकर स्व में नहीं आ सकता। जो पाप भावों की रुचि में पड़े हैं, उनका तो कहना ही क्या है ? परन्तु पुण्य की रुचि वाले बाह्य त्याग करें, तप करें, द्रव्यलिंग धारण करें तथापि जब तक शुभ की रुचि है, तब तक उपयोग पर की ओर से पलट कर स्वोन्मुख नहीं हो सकता और