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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.२१-२२]
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तो राजा श्रेणिक पूछता है कि प्रभो! यह कैसे और किसको मिलेगी? इसके समाधान में भगवान महावीर स्वयं कहते हैं, आगे गाथा
गाथा-२१-२२
श्री वीरनाथं उक्तंति सुद्धं, सुनु श्रेनिराया माला गुनार्थं । किं रत्न किं अर्थ किं राजनार्थं, किं तव तवेत्वं नवि माल दिस्टं। किं रत्न कार्ज बहुविहि अनंतं, किं अर्थ अर्थं नहिं कोपि काऊं। किं राजचक्रं किं काम रूपं, किं तव तवेत्वं बिन सुद्ध दिस्टी॥
शब्दार्थ- (श्री वीरनाथं) श्री वीर प्रभु भगवान महावीर (उक्तंति) कहते हैं (सुद्ध) शुद्ध सत्य वस्तु स्वरूप (सुनु) सुनो (श्रेनिराया) राजा श्रेणिक (माला गुनार्थ) यह रत्नत्रय ज्ञान गुण माला अपना ही प्रयोजनीय शुद्धात्म स्वरूप है, निज स्वरूप को प्राप्त करने में (किं रत्न) क्या रत्न (किं अर्थ) क्या धन वैभव (किं राजनार्थ) राज पाठ का क्या प्रयोजन है (किं तव तवेत्व) क्या तप तपने वाले (नवि माल दिस्टं) यह माला नहीं देख सकते । निज शुद्धात्मानुभूति करने में (किं रत्न काज) रत्नों का क्या काम है (बहविहि) बहुत प्रकार के (अनंत) अनन्त (किं अर्थ अर्थ) धन वैभव का भी क्या प्रयोजन है? (नहिं कोपिकाज) इनका कोई काम नहीं है (किं राजचक्र) राजा महाराजा चक्रवर्ती का क्या काम है? (किं काम रूपं) यह कामदेव रूपवान विद्याधरों का भी क्या काम है (किं तव तवेत्वं) यह तप तपने वाले भी क्या करेंगे (बिन सुद्ध दिस्टी) बिना शुद्ध दृष्टि अर्थात् सम्यग्दर्शन बगैर यह रत्नत्रय मयी ज्ञान गुणमाला कैसे देख सकते हैं?
विशेषार्थ - केवलज्ञानी परमात्मा श्री महावीर भगवान कहते हैं कि हे राजा श्रेणिक ! सुनो, शुद्ध वस्तु स्वरूप यह रत्नत्रय मयी ज्ञान गुणमाला अपना ही शुद्धात्म स्वरूप है। निज स्वरूप की अनुभूति करने में रत्नों का, धन का, राज वैभव का, कोरे तत्व ज्ञान का या सत्श्रद्धान रहित कोरे तपतपने
का क्या प्रयोजन है ? जिसके पास रत्न, धन, आदि वस्तुयें होवें और दृष्टि अशुद्ध हो, मिथ्यादृष्टि हो उसे यह रत्नत्रय मालिका दिखाई नहीं देगी अर्थात् निज शुद्धात्म स्वरूप अनुभव में नहीं आयेगा।
निज स्वरूपानुभूति करने में बहुत प्रकार के रत्नों का क्या काम है ? कुबेरों के समान विपुल धन की भी क्या आवश्यकता है ? अर्थात् शुद्धात्म स्वरूप की प्राप्ति करने में (परमात्मा का दर्शन करने में) इन बाह्य पदार्थों की कोई जरूरत नहीं है। राजा, महाराजा, चक्रवर्ती, कामदेव, विद्याधर या तप के तपने वालों का भी इसमें क्या काम है ? बिना शुद्धदृष्टि के कोई भी पद या क्रिया आदि से अपने स्वरूप की अनुभूति नहीं हो सकती और बगैर सम्यग्दर्शन के मुक्ति होने वाली नहीं है। अनादि से जीव ने अपने सत्स्वरूप को नहीं जाना । यह शरीर ही मैं हूँ - यह शरीरादि मेरे हैं, मैं इन सबका कर्ता हूँ, ऐसा अनादि से मानता चला आ रहा है, यही अग्रहीत मिथ्यात्व संसार परिभ्रमण का कारण बना है। वर्तमान में मनुष्य भव और सब शुभ योग पाये हैं, बुद्धि है, स्वस्थ शरीर और पुण्य का उदय है अब इनका सदुपयोग अपने शुद्धात्म स्वरूप को जानने, भेदज्ञान करने, वस्तु स्वरूप का विचार करने में करें, तो जीव अभी सुलट सकता है। जैसे मन्दिर विधि-धर्मोपदेश में कहा है
उल्टो जीव अनादिको, अब सुलटन को दांव ।
जो अबके सुलटे नहीं, तो गहरे गोता खाव ॥
आत्मा ही आनन्द का धाम है, इसमें अन्तर्मुख होने से ही सुख है। ऐसी वाणी की झंकार जहाँ कानों में पड़े वहाँ आत्मार्थी जीव का आत्मा भीतर से झनझना उठता है। आत्मा के परम शान्त रस को बतलाने वाली यह वाणी वास्तव में अद्भुत है।
अति अल्प काल में जिसे संसार परिभ्रमण से मुक्त होना है, ऐसे अतिशय भव्य जीव को निज परमात्मा के सिवाय अन्य कछ उपादेय नहीं है। जिसमें कर्म की कोई अपेक्षा नहीं है, ऐसा जो अपना शुद्ध परमात्म तत्व, उसका आश्रय करने से सम्यग्दर्शन होता है और उसी का आश्रय करने से सम्यग्चारित्र होता है और उसी का आश्रय करने से अल्पकाल में मुक्ति होती है। इसलिये मोक्ष के अभिलाषी जीव को अपने शुद्धात्म तत्व का ही आश्रय करने योग्य