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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.२०]
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गाथा-२० किं दिप्त रत्नं बहुविहि अनंतं, किं धन अनंतं बहुभेय जुक्तं । किं तिक्त राजं बनवास लेत्वं, किं तव तवेत्वं बहुविहि अनंतं ॥
स्वरूप का निर्णय करके स्वानुभव करना, यह रत्नत्रयमयी मालिका को धारण करना ही मोक्षमार्ग है।
राजा श्रेणिक ने पूछा- कि प्रभो ! रत्नत्रय मयी ज्ञान गुणमाला क्या है?
भगवान ने दिव्य ध्वनि में कहा कि आत्मा में अखंड आनन्द स्वभाव भरा है, जिसमें अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य आदि अनन्त गुण हैं। यह रत्नत्रय मयी ज्ञान गुण माला अपना ही स्वरूप है, ऐसे चैतन्य मूर्ति निज आत्मा की श्रद्धा करो, उसमें लीनता करो । रत्नत्रय मयी मालिका को धारण करो, तो केवलज्ञान प्रगट होता है। जो तीन लोक से वन्दनीय महामंगलकारी है। जिससे शाश्वत सिद्ध पद प्राप्त होता है।
राजा श्रेणिक इस बात को सुनकर परम प्रसन्न आनन्द में होते हैं और उनकी भावना होती है कि यह रत्नत्रय मालिका मैं ले लें क्योंकि जैन दर्शन के परमतत्व निज शुद्धात्म स्वरूप से अनभिज्ञ थे जैसे-संसारी जीव बाह्य में ही सब कुछ मानते हैं या भगवान की कृपा आशीर्वाद चाहते हैं, वैसा ही राजा श्रेणिक समझते थे, उन्होंने बड़ी विनय भक्ति पूर्वक भगवान की तीन प्रदक्षिणायें देकर कहा कि प्रभो! यह रत्नत्रय मालिका मुझे दे दो।
तब भगवान की दिव्य ध्वनि में आया-कि हे राजा श्रेणिक! यह रत्नत्रय मयी ज्ञान गुणमाला ऐसे मांगने से नहीं मिलती। यह कोई सामान्य वस्तु नहीं है,राजा श्रेणिक ने सोचा, कोई विशेष वस्तु है, किसी विशेष व्यक्ति या विशेष धनादि से प्राप्त होती है। जैसा वर्तमान में धर्म के नाम पर धन्धा होता है। हर समय कोई भी धार्मिक आयोजन में बोली लगाई जाती है और जो अधिक धन देता है या विशेष व्यक्ति संयमी आदि होता है तो उसे प्रमुखता दी जाती है।
इस अपेक्षा से राजा श्रेणिक ने कहा कि यह मझे नहीं मिलती तो क्या यह इन्द्र, धरणेन्द्र, गंधर्व, यक्ष आदि देवों को मिलेगी? उत्तर मिला नहीं, तो पूछा क्या यह राजा, महाराजा, चक्रवर्ती, विद्याधरों को मिलेगी? उत्तर आया नहीं, तब राजा श्रेणिक बड़े आश्चर्य में होकर अन्य लोगों को देखकर जो समवशरण में उपस्थित थे, पूछते हैं, उसी सन्दर्भ की गाथा -
शब्दार्थ - (किं) क्या (दिप्त रत्न) हीरे जवाहरात रत्न (बहुविहि) बहुत प्रकार (अनंतं) अनन्त हैं (किं) क्या (धन अनंतं) अनन्त धन है (बहुभेय) बाह्य भेष (जुक्तं) लीन है, बना लिया है (किं) क्या (तिक्त राज) राज पाठ को छोड़कर (बनवास लेत्वं) बनवास ले लिया अर्थात् साधु भेष बनाकर जंगल में रहते हैं (किं) क्या (तव तवेत्वं) तप तपते हैं अर्थात् तपस्या करते हैं (बहुविहि) बहुत प्रकार से (अनंत) अनन्त।
विशेषार्थ- यह रत्नत्रयमयी ज्ञान गुण माला क्या उनको मिलेगीजिनके पास बहुत प्रकार के हीरे जवाहरात आदि प्रकाशित अनेक रत्न हैं? क्या उनको मिलेगी, जो कुबेरों के समान बहुत प्रकार की धन राशि के स्वामी हैं? क्या जिनने राज्य का त्याग कर वनवास ले लिया, बाह्य भेष बना लिया, उनको मिलेगी? या जो बहुत प्रकार से तपस्या करते हैं, क्या उनको यह रत्नत्रय मालिका मिलेगी?
रत्नों से, धन से, बाह्य भेष बनाने से या तप तपने से क्या (निज शुखात्म स्वरूप) रत्नत्रय मयी ज्ञान गुण मालिका प्राप्त होगी?
राजा श्रेणिक भी बड़ा हिम्मतवर जिज्ञासु जीव था, उसने प्रश्नों की झडी लगा दी. कि क्या धर्म में भी भेदभाव होता है? यहाँ यह जो बडे-बडे लोग जिनके पास हीरे जवाहरात आदि हैं या बहुत धनवान, पैसे वाले हैं, इनको मिलेगी? उत्तर आया- नहीं....। तो फिर प्रश्न करता है, तो क्या यह जो साधु बनकर बैठे हैं, जिन्होंने राज-पाठ छोड दिया, वनवास ले लिया है, इनको मिलेगी? उत्तर आया-नहीं। तो क्या यह तपस्वी बहुत प्रकार का तप करने वाले हैं, इनको मिलेगी? उत्तर आया- नहीं।
___ हे राजा श्रेणिक ! निज शुद्धात्म स्वरूप रत्नत्रय मालिका बाहर किसी विभूति से किसी प्रकार के क्रिया कांड से मिलने वाली नहीं है।