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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. १९]
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अवधिज्ञान हुआ, जिसके आधार पर उन्होंने छद्मस्थ वाणी ग्रंथ में यह बताया है और शुद्ध अध्यात्मवाद का शंखनाद किया, चौदह ग्रंथों की रचना की जिसमें पहला ग्रंथ यह मालारोहण है।
जो प्रश्न किया गया है, इसका पूरा समाधान इन आगे की गाथाओं में स्पष्ट है -
गाथा-१४ श्रेनीय पिच्छन्ति श्री वीरनाथं, मालाश्रियं मागंति नेयचक्रं । धरनेन्द्र इन्द्रं गन्धर्व जष्यं, नरनाह चक्रं विद्या धरेत्वं ॥
शब्दार्थ- (श्रेनीय) राजा श्रेणिक (पिच्छन्ति) प्रश्न करते हैं, पूछते हैं (श्री वीरनाथं) भगवान महावीर स्वामी से (मालाश्रियं) श्रेय रूप मुक्ति को प्राप्त कराने वाली श्रेष्ठमाला, रत्नत्रयमयी ज्ञान गुणमाला (मागंति) मांगते हैं (नेय चक्रं) बड़े स्नेह भक्ति पूर्वक प्रदक्षिणा देते हुये (धरनेन्द्र) धरणेन्द्र (इन्द्र) देवों के राजा (गंधर्व जष्यं) गंधर्व यक्ष जाति के देव (नरनाह) राजा महाराजा (चक्र) चक्रवर्ती (विद्या धरेत्वं) विद्याधर भी मनुष्य होते हैं, जो विशेष विद्याओं के धारी होते हैं।
विशेषार्थ- भगवान महावीर के समवशरण में ज्ञान गुणमाला, शुद्धात्म तत्व का वर्णन सुनकर महाराजा श्रेणिक उत्साह पूर्वक श्री वीर प्रभु भगवान महावीर से रत्नत्रयमयी ज्ञान गुण माला के सम्बन्ध में पूछते हैं और स्नेह सहित विनय पूर्वक प्रदक्षिणा देकर श्रेष्ठ रत्नत्रयमयी ज्ञान गुणमाला को मांगते हैं कि प्रभु यह रत्नत्रयमयी मालिका मुझे दे दो। तब भगवान की दिव्य ध्वनि में आया कि राजन ! यह रत्नत्रयमयी गुणमाला ऐसे मांगने से नहीं मिलती। यह सुनकर राजा श्रेणिक ने पूछा - कि यह धरणेन्द्र, इन्द्र, गन्धर्व, यक्ष आदि देव अथवा राजा महाराजा, चक्रवर्ती, विद्याधर आदि यहाँ बैठे हैं, क्या यह रत्नत्रय मालिका इनको मिलेगी?
जब वैभारगिरि (विपुलाचल पर्वत राजग्रही में) भगवान महावीर स्वामी
को वैसाख सुदी १० को केवलज्ञान प्रगट हुआ,छ्यासठ दिन तक दिव्य ध्वनि नहीं खिरी, इन्द्र द्वारा गौतम गणधर का आना आदि,राजा श्रेणिक का बौद्धमति होने से यशोधर मुनिराज के गले में सर्प डालना, नरक आयु का बंध, रानी चेलना द्वारा बोध मिलने पर जैन धर्म के प्रति समर्पित होना, उसी समय समवशरण का योग मिलना, जहाँ राजा श्रेणिक को क्षायिक सम्यक्त्व और तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हुआ । उसी क्रम में यह प्रश्नोत्तर का वर्णन चल रहा है।
जब भगवान की दिव्य ध्वनि प्रगट हुई, गौतम गणधर द्वारा प्रसारित होने लगी, वहाँ सत्य धर्म का स्वरूप, मुक्ति का मार्ग भव्य जीवों को सुनने मिलने लगा, इस धर्म सभा के प्रमुख श्रोता राजा श्रेणिक थे. जब भगवान आत्मा का सुन्दर एकत्व-विभक्त स्वरूप बतलाते हैं जो अपूर्व प्रीति लाकर श्रवण करने योग्य है।
हे भव्य जीवो ! जगत का परिचय छोड़कर, प्रेम से आत्मा का परिचय करके भीतर उसका अनुभव करो, ऐसे अनुभव से परम शान्ति प्रगट होती है, और अनादि की अशान्ति मिट जाती है। आत्मा के ऐसे स्वभाव का श्रवण, परिचय, अनुभव दुर्लभ है परन्तु वर्तमान में उसकी प्राप्ति का सुलभ अवसर आया है, इसलिये दूसरा सब भूलकर अपने शुद्ध स्वरूप को लक्ष्य में लो उसका अनुभव करो।
देखो-देखो यह शरीरादि से भिन्न, एक अखंड चैतन्य ज्योति निज शुद्धात्म स्वरूप सम्यक् श्रुत ज्ञान द्वारा आत्मा का अनुभव करके निर्विकल्प आनन्द रस का पान करो जिससे अनादि मोह तृषा की दाह मिट जाये।
तुमने चैतन्य रस के अमृत प्याले कभी नहीं पिये, अज्ञान से मोह रागद्वेष रूपी विष के प्याले पिये हैं, अब अपने शुद्धात्म स्वरूप, चैतन्य रस का पान करो, यह रत्नत्रय मयी, परम सुख, परम शान्ति, परमानन्द स्वरूप ज्ञान गुणमाला को स्वीकार,ग्रहण करो, जिससे सारी आकुलता मिटकर सिद्ध पद को प्राप्ति हो।
यह क्रिया कांड मोक्षमार्ग नहीं है, पर के अवलम्बन से मुक्ति नहीं होती, अपने शुद्धात्म स्वरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र मयी चैतन्य