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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. १८]
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टालने के लिए सदा निश्चय नय ही आदरणीय है। उस समय दोनों नय का ज्ञान होता है, परन्तु धर्म प्रगट करने के लिए दोनों नय कभी आदरणीय नहीं है। व्यवहार नय के आश्रय से कभी धर्म अंशत: भी नहीं होता परन्तु उसके आश्रय से तो राग द्वेष के विकल्प ही उठते हैं।
शुद्धता प्रगट करने के लिए कभी निश्चय नय आदरणीय है, कभी व्यवहार नय आदरणीय है, ऐसा मानना भूल है, तीनों काल अकेले निश्चय नय के आश्रय से ही धर्म प्रगट होता है।
साधक जीव प्रारम्भ से अन्त तक निश्चय की ही मुख्यता रखकर व्यवहार को गौण ही करते जाते हैं ; इसलिये साधक दशा में निश्चय की मुख्यता के बल से साधक को शुद्धता की वृद्धि अर्थात गुण प्रगट होते जाते हैं
और अशुद्धता अर्थात् विकारी पर्याय टलती जाती है, यही मुक्ति का मार्ग है। इस प्रकार निश्चय की मुख्यता के बल से पूर्ण केवलज्ञान होने पर वहाँ मुख्य गौण पना नहीं होता और नय भी नहीं होते।
जो जीव स्वरूप का निर्णय करके भीतर स्वरूप में स्थिर हुआ, वहाँ जो खंड होता था, भेद पड़ा था, वह अभेद अखंड हो गया और अकेला आत्मा अनन्त गुणों से भरपूर आनन्द स्वरूप रह गया। मैं शुद्ध हूँ, मैं अशुद्ध हूँ, मैं बद्ध हैं, अबद्ध हूँ, ऐसे विकल्प थे वे टूट जाते हैं और अकेला आत्म तत्व रह जाता है। ऐसे आत्म स्वरूप का बराबर निर्णय करने से विकल्प छूट जाते हैं, पश्चात् अनन्त गुण सामर्थ्य से भरपूर अकेला निज शुद्धात्म तत्व ही रहता है। स्वेच्छाचार तो अज्ञान दशा में होता है।
प्रश्न - भगवान महावीर ने ऐसे एकान्त पक्ष का प्रतिपादन तो नहीं किया, उनके शरण में भी लाखों जीव, साघु, आर्यिका, श्रावक, श्राविका थे. अगर पहले निश्चय सम्यग्दर्शन की बात होती,शुद्धात्म तत्व की ही चर्चा उपदेश होता तो इतने जीव संयमी त्यागी साध कैसे होते?
समाधान - भगवान महावीर ने ही द्रव्य की स्वतंत्रता और वस्तु का स्वरूप बताया है। उन्होंने ही निज शुद्धात्म स्वरूप के आश्रय धर्म की व्याख्या की है। जगत तो पराधीन-पराश्रितपने से ही चल रहा है, स्वाधीनता और
द्रव्य की स्वतंत्रता तो जैन दर्शन का मूल आधार है। किसी पर परमात्मा के आश्रय उसकी पूजा भक्ति करने या बाह्य क्रिया कांड, पूजा-पाठ करने से कभी मुक्ति मिलने वाली नहीं है। मुक्ति तो अपने निज शुद्धात्म तत्व रत्नत्रयमयी ज्ञान गुणमाला को उपलब्ध होने सम्यग्दर्शन होने पर ही होगी। इसमें व्यवहार रत्नत्रय बाह्य आचरण का निषेध नहीं है, पर मात्र इनके आश्रय मुक्ति नहीं होगी, इनसे तो पुण्य बंध और संसार का चक्र ही चलेगा। संयम, सदाचार,का पालन करने का कभी किसी ने निषेध नहीं किया। भगवान महावीर के समवशरण में लोग गये, धर्म की देशना सुनी, आत्म कल्याण करने, मुक्ति को पाने की चर्चा सनी और जिसको जैसा समझ में आया वह वैसा करने लगा। भगवान उसे भी नहीं रोक सकते, वह भी किसी का कुछ नहीं कर सकते क्योंकि यदि कुछ करते होते, तो भगवान आदिनाथ के समवशरण में यही भगवान महावीर का जीव मारीचि की पर्याय में बैठा था। भरत चक्रवर्ती का पुत्र और भगवान आदिनाथ का पोता था, तीर्थकर होने की घोषणा भी कर दी, लेकिन उसे मोक्षमार्ग में नहीं लगा सके। अज्ञान मिथ्यात्व के कारण ३६३ मत विपरीत चलाये, अनन्त पर्यायों में परिभ्रमण किया और जब सुलटने का काल आया तो सिंह की पर्याय में निज शुद्धात्मानुभूति हुई, सम्यग्दर्शन हुआ और दसवें भव में महावीर बने।
इसी बात को महावीर भगवान ने अपनी दिव्य दृष्टि में बताया, राजा श्रेणिक ने ६० हजार प्रश्न किये। धर्म का स्वरूप अनेकान्तमय है। स्याद्वाद से इसका समन्वय किया जाता है। धर्म मार्ग पर निश्चय व्यवहार के समन्वय पूर्वक ही चला जाता है, परन्तु धर्म तो शुद्ध निश्चय नय अपने शुद्धात्म तत्व के आश्रय उसका ही ज्ञान श्रद्धान करने पर होता है। इसी रत्नत्रय मयी ज्ञान गुणमाला सम्यग्दर्शन की महिमा भगवान महावीर स्वामी की दिव्य ध्वनि में आई, जिसे सुनकर राजा श्रेणिक ने प्रश्न किये। उन सारे प्रश्न उत्तर का आखों देखा हाल सद्गुरू तारण स्वामी यहाँ आगे बता रहे हैं, श्री तारण स्वामी का जीव महावीर भगवान के समवशरण में था, उन्होंने भगवान की देशना को सुना, उस पर श्रद्धान बहुमान किया और वही सारा ज्ञान लेकर दो हजार वर्ष बाद पैदा हुये, जहाँ ग्यारह वर्ष की उम्र में सम्यग्दर्शन हुआ, संयम होने पर