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श्री कमलबत्तीसी जी
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श्री कमलबत्तीसी जी ४. दृढता धर कर मारे जाओ, धर्म की जय जयकार करो।
अब संसार में नहीं रहना है, कर्मोदय से नहीं डरो ॥ सीता सती परम शान्ति का, सदा जपो तुम नाम है।
धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ॥ ५. क्या होना है क्या होवेगा, इसका तनिक न सोच करो।
त्रिकाली परिणमन सब निश्चित, ध्रुव तत्व का ध्यान धरो॥ पर घर काल अनादि भटके, अब यह मिला मुकाम है। धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ॥ कुछ ही समय की बात रही है, समता शान्ति धरे रहो। जल्दी काल लब्धि आना है, ॐ नम: सिद्ध ही कहो । जग से अब क्या लेना-देना, सबको राम-राम है। धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ॥ ज्ञानानंद जीतता जाता, निजानंद बढ़ता जाता । ब्रह्मानन्द सामने देखो, सहजानंद चला आता ॥ स्वरूपानंद में लीन रहो बस, यहीं पर अब विश्राम है। धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ॥ सर्वज्ञ प्रभु यह सामने बैठे, वस्तु स्वरूप को बता रहे। सिद्ध स्वरूप को देखो अपने, तारण स्वामी जता रहे । धुवतत्व शुद्धातम अपना, पूर्ण शुद्ध निष्काम है। धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ॥ पर का सब अस्तित्व मिटाओ, पर्यायी भ्रम जाल है। पर की तरफ देखना ही बस, यही तो जग जंजाल है ॥ निज घर रहो निजानन्द पाओ, पर घर में बदनाम है। ध्रुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ॥ शून्य समाधि लगाओ अपनी, निर्विकल्प निद रहो । अपनी ही बस देखो जानो, और किसी से कुछ न कहो॥ ज्ञानानंद सौभाग्य जगा है, जग से मिला विराम है । धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ॥
४. ममल स्वभाव सिद्ध स्वरूपी शुद्धातम है, पूर्ण शुद्ध निष्काम है । ध्रुव त त्व टंकोत्कीर्ण अप्पा, ज्ञायक आतम राम है। वस्तु स्वरूप सामने देखो, मिला यह अच्छा दांव है। पर पर्याय पर दृष्टि न देना, ये ही ममल स्वभाव है। ममल स्वभाव में रहने से ही, परमानन्द बरसता है। कर्मों का क्षय होता जाता, सहजानंद हरषता है ।। ज्ञान विराग की शक्ति अपनी, जितना उमंग उछाव है। पर पर्याय पर दृष्टि न देना, ये ही ममल स्वभाव है। भेदज्ञान तत्व निर्णय द्वारा, वस्तु स्वरूप को जाना है। ध्रुव तत्व शुद्धातम हूं मैं, निज स्वरूप पहिचाना है । दृढता धर पुरूषार्थ करो नर, देखें कितना चाव है। पर पर्याय पर दृष्टि न देना, ये ही ममल स्वभाव है। शरीरादि सब ही भ्रांति है, मन माया भ्रम जाल है। इनके चक्र में उलझा प्राणी, रहे सदा बेहाल है । अनुभव प्रमाण सब जान लिया है, ये तो सभी विभाव हैं। पर पर्याय पर दृष्टि न देना, ये ही ममल स्वभाव है ।। व्यवहारिक सत्ता को छोड़ो, धर्म का अब बहुमान करो। वीतराग निस्पृह होकर के, साधु पद महाव्रत धरो । धुव तत्व की धूम मचाओ, बैठो आतम नांव है । पर पर्याय पर दृष्टि न देना, ये ही ममल स्वभाव है। कर्मोदय सत्ता मत देखो, न संसार की बात करो। धर्म कर्म का सब निर्णय है, चित्त में इतनी दृढता धरो॥ ढील-ढाल प्रमाद में रहना, ये ही जग भटकाव है। पर पर्याय पर दृष्टि न देना, ये ही ममल स्वभाव है। निज शुद्धात्म स्वरूप को देखो, ज्ञानानंद में मगन रहो। निजानंद की धूम मचाओ, तारण तरण की शरण गहो ।
१०.