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श्री कमलबत्तीसी जी
२.ज्ञानी ज्ञायक
श्री कमलबत्तीसी जी निर्विकार निस्पृह है निज में, पर से कुछ न कहता है। ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है । ध्रुव तत्व निज शुद्धातम का, जिसको दृढ श्रद्धान है। त्रिकाली पर्याय क्रमबद्ध, निश्चित अटल का ज्ञान है। निर्विकल्प हो ध्यान समाधि, अपने आप में रहता है। ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है ॥ धन शरीर संसार से उसको, कोई न राग द्वेष है। कैसी क्या क्रिया होती है, कैसा उसका भेष है ॥ सहजानंद स्वरूपानंद हो, तत्वमसि ही कहता है ।
ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है । १०. आगम अनुभव से प्रमाण कर, सार तत्व को जाना है।
कथनी करनी छूट गई सब, धुवतत्व पहिचाना है । पर उसको पहिचान न सकता, स्वयं स्वयं को गहता है। ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है ।।
१. ध्रुव तत्व शुद्धातम हूं, परमातम सिद्ध समान हूँ।
निरावरण चैतन्य ज्योति मैं, ज्ञायक ज्ञान महान हूं। वस्तु स्वरूप को जाना जिसने, ध्रुव ध्रुव ही कहता है।
ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है। २. कर्म उदय पर्याय से उसका, कोई न संबंध है ।
पर की तरफ न दृष्टि देता, स्वयं पूर्ण निर्बन्ध है ॥ पूर्व कर्म बन्धोदय जैसा, समता से सब सहता है।
ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है । ३. खाना पीना सोना चलना, सब पुदगल पर्याय है।
अच्छा बुरा न पुण्य-पाप है, सुख दुःख न हर्षाय है ॥ अभय अडोल अकंप निरन्तर, मन के साथ न बहता है।
ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है ।। ४. करना-धरना छूट गया सब, जो होना वह होता है।
किसी की कोई परवाह नहीं, क्या आता जाता खोता है। अडीधक्क अपने में रहता, सब कर्मों को हरता है।
ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है । ५. किसी दशा में किसी हाल में, कहीं रहे कैसा होवे ।
इससे उसे कोई न मतलब, अपने ध्रुव धाम सोवे ॥ सत्य धर्म की बात बताता, अहं ब्रह्मास्मि कहता है। ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है । कर्मोदय पर्याय अवती, व्रती हो महाव्रती हो । जग में जय जयकार मचे या, सारी साख ही गिरती हो ॥ निर्भय मस्त रहे अपने में, जग अस्तित्व को ढहता है।
ज्ञानानंद निजानंद रत हो, ज्ञानी ज्ञायक रहता है । ७. घर समाज परिवार से उसका, अब ना कोई नाता है।
प्रेमभाव रहता है सबसे, सबसे हंसता गाता है ।
३.ध्रुवधाम १. सिद्ध स्वरूपी शुद्धातम हो, अनन्त चतुष्टय धारी हो ।
परमानन्द मयी परमातम, पूर्ण मुक्त अविकारी हो । न्यारे हो स्वराज्य लिया है, पाया निज धुव धाम है।
धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ॥ २. क्या होता आता जाता है, इससे कोई न मतलब है।
क्रमबद्ध पर्याय से निश्चित, जरा न होवे गफलत है। रावण का ही वध होना है, जय बोलो श्रीराम है।
धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है। ३. चारों तरफ धर्म की सेना, कर्म बने वरदान हैं ।
अभय स्वस्थ होकर के बैठो, जीत लिया मैदान है। कुंभकरण वध हो ही गया है, जीता आतम राम है। धुवधाम में डटे रहो बस, इतना ही अब काम है ॥