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श्री कमलबत्तीसी जी था। तारण स्वामी का जीवन भारतीय संस्कृति के लिए आध्यात्मिक विकास का प्रतीक है। हिंसा और अहिंसा, सत्य और असत्य, परिग्रह और अपरिग्रह के संघर्ष में जिस मार्ग का अनुसरण किया उसी मार्ग पर दृढ़ता से बढ़ते गये, एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने अपने शरीर को ब्रह्मचर्य की आग में ऐसा तपा लिया था कि इच्छाओं को विराम मिल गया। ३० साल के अखण्ड तप में उनकी आत्मा पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान प्रकाशमयी हो गयी। उनका चारित्र इतना भव्य था, उनकी वाणी सरल और सशक्त थी कि ५५० वर्षों से समता और आत्मोन्नति का पथ सिंचित करती आ रही है और अहिंसा सहित ज्ञान की संचित पूंजी का आवंटन भी। तारण स्वामी ने संदेश दिया था कि अंतस् में उठने वाली मोह, राग, द्वेष की प्रवृत्तियों को जीतना ही सच्ची विजय है।तारण स्वामी के समय में देश में चारों ओर अन्याय, अत्याचार, अंधविश्वास और बाह्य क्रिया काण्डों का साम्राज्य था। बड़ा ही वीभत्स और करूण दृश्य उपस्थित था, सत्य कुचला जा रहा था, नारियों की पवित्रता दुतकारी जा रही थी। तारण स्वामी ने लोक स्थिति का अध्ययन किया, लोगों को अज्ञानता, स्वार्थपरता, भ्रम और उनका अंधविश्वास देखकर तारण स्वामी के हृदय में करूणा उपजी, साथ ही पीड़ितों के दुःख को देखकर उनके हृदय में पूर्व संचित दया का अखण्ड स्रोत बह निकला।
उनका तप उनका ज्ञान "तरण के लिए था पर उन्होंने जगत के जीवों को सत्य ज्ञान प्रदान करने का संकल्प किया, उन्होंने लोक उद्धार का सम्पूर्ण भार उठाने के पहले अपने को तौला। उसमें जो कमियाँ थीं, उन्हें तीस वर्ष तक श्रावक धर्म पालते हुए सेमरखेड़ी के बियावान जंगल में तपश्चरण करते हुए पूरा किया। इसके बाद सब प्रकार से शक्ति सम्पन्न होकर सिंहनाद किया, लोक में प्रचलित सभी अंधविश्वासों और पाखण्डों के विरूद्ध आवाज उठाई, इस सिंहनाद को सुनकर लोगों को अपनी भूल मालूम हुई, वास्तविक धर्म का ज्ञान हुआ, यथार्थ स्वरूप का परिचय हुआ, आत्मा-अनात्मा का भेद स्पष्ट हुआ, मिथ्या मान्यताओं से पर्दा उठा, इस आशा के साथ जाति भेद की कट्टरता मिटी, उदारता प्रगटी, लोगों के हृदय में समानता की भावना जागी।
उन्होंने लुकमानशाह जैसे सुल्तानों को प्रभावित किया, लक्ष्मण पाण्डे जैसे कितने ही दिग्गज विद्वानों को प्रबोधित किया,चिदानन्द चौधरी आदि कितने ही तिरस्कृत व्यक्तियों ने तारण स्वामी की देशना स्वीकार की और सब प्रकार से अनुयायी बनकर वास्तविक धर्म का मर्म प्राप्त किया । तारण स्वामी की आध्यात्मिक क्रांति के कारण उस समय का बहुत बड़ा समुदाय
श्री कमलबत्तीसी जी अध्यात्मवाद की ओर अग्रसर हुआ। इस प्रभावना ने जहाँ दुखियों के हृदय में शांति स्थापित की, करूणा की धारा बहाई, मानवता के पतन को रोका, वहीं नवीन युग का सूत्रपात भी किया।
गुरूदेव तारण स्वामी के अमृत तुल्य १४ ग्रंथों में किसी का विरोध नहीं है, उनके ग्रंथों में वास्तविक आत्मा के स्वरूप का चिंतन है। जैसा आत्मा का अनुभवन किया वैसा ही ग्रंथों में उतर आया। तारण स्वामी आये थे तो संदेश लेकर, अपरिमित ज्ञान, दया, करूणा, समता का भण्डार अपने हृदय में सिंचित किये हुए जैन धर्म का आज जो सुदृढ़ महल अवस्थित है उसका श्रेय तारण स्वामी की संकल्प शक्ति को ही है। तारण स्वामी का पथ कठिन अवश्य था किन्तु अति समतावादी सुन्दर और मनोरम। तारण स्वामी प्रतिपल विचार करते थे कि संयम का अपूर्व अवसर उपस्थित हुआ है अत: मोह, माया, ममता पर विजय प्राप्त कर अहंकार के पथ से ऊपर जीवन में निर्मलता का अनुसंधान करना है। इसी कारण तारण स्वामी पंथवाद के व्यामोह में नहीं फंसे । सभी जीवों को सत्य धर्म का उपदेश देना उनका लक्ष्य था और इस अभियान में वे सफल भी हुए। जाति-पांति से विमुख तात्कालिक भारत की सभी जातियों ने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया। उनका जीवन देखकर वीतरागता भी कृतज्ञ थी। तारण स्वामी के चरण जिस ओर बढ़े,बढ़ते ही गये कभी पीछे लौट कर नहीं देखा।
६० वर्ष की अवस्था तक तारण स्वामी इस ज्ञानयज्ञ में लगे रहे और एक बार पुन: सेमरखेड़ी के बियावान जंगल में,जहाँ पहले तप, संयम और अध्ययन के फलस्वरूप वास्तविक स्वरूप की स्थापना का संकल्प लिया था, उसी स्थान पर श्रावकपद की निर्वृत्तिपूर्वक मुनिपद अंगीकार किया और इस पद की प्राप्ति के बाद पूर्ण रूप से संयमी बन गये। इसी क्रम में भ्रमण को अल्पविराम मिला और साधना की गहनता बढ़ी। कुछ समय बाद तारण स्वामी संघ सहित मल्हारगढ़ ग्राम के विपिन में पधारे, आपको यहाँ अपार शांति प्राप्त हुई, आपने इस पावन स्थल पर कुछ समय तक महत् ध्यानाराधना की। अंत में, विक्रम संवत् १५७२ कीजेठ वदी ६ को आपने इसी स्थान पर देह का परित्याग कर संसार भ्रमण की बहुत बड़ी भूमिका छोड़कर सर्वार्थ सिद्धि पद प्राप्त किया और अमरता को प्राप्त हो गये।
आज ५५० वर्षों के बाद भी विश्व धर्म की धारा से समन्वय बनाये हुए, तारण पंथ अपना अविछिन्न रूप बनाये हुए है । सम्पूर्ण बाह्य क्रिया कांडों, अंधविश्वासों और रूढ़ियों से विदा लेकर सामाजिक चेतना को आगे बढ़ाने में