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श्री कमलबत्तीसी जी ए भारत के महाप्राण : संत तारण तरण एy
श्री कमलबत्तीसी जी
मिले या न मिले, मृत्यु जरूर मिलेगी। सफेद बाल निवृत्ति के प्रतीक हैं, सफेद बाल रूपी चावल परोस दिये जायें तो संसार से हाथ जोड़कर
सन्यास ले लेना चाहिये। १२. मांगो उसी से जो दे दे खुशी से, कहे न किसी से । दान देना शान से,
दान लेना आन से, दान का सदुपयोग हो, सबका कल्याण हो । पुण्य
और दान छपाकर नहीं, छिपाकर करना चाहिये। १३. जो दिया जाता है वह भाषण है, जो जिया जाता है वह प्रवचन है।
आज देश को बातों के बादशाह नहीं, आचरण के आचार्य चाहिये। १४. जो कीचड़ में कीड़े की तरह जीता है वह अज्ञानी है और जो कीचड़ में
कमल की तरह जीता है वह ज्ञानी है। धंधे में धर्म का समावेश जरूरी
है किन्तु धर्म में धंधा नहीं होना चाहिये। १५. मंदिर तुम्हारा ही रूप है, तुम्हारे देह मंदिर में वैदेही परमात्मा बैठा है
उस परमात्मा को पहिचानना ही इस मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा है। १६. जो शुभ है, पुण्य है करने जैसा है, वह आज अभी इसी वक्त कर लो,
समय का कोई भरोसा नहीं । बूढा आदमी दुनिया का सबसे बड़ा शिक्षालय है। आज समाज की स्थिति उस अधमरे व्यक्ति के समान है, जिसे न तो दफना सकते हैं और न ही जिससे कोई काम ले सकते हैं। यह समाज के लिये खतरनाक संकेत है, इस खतरे का समाधान समाज को सुसंस्कार देना है। सन्यास जीवन क्रांति की दास्तान है। सन्यास का अर्थ एक परिवार को छोड़ देना नहीं, वरन् पूरे संसार को परिवार बना लेना है। संसार से भागना नहीं, जागना सन्यास है। जब मन में कोई खोट होती है तभी तन पर लंगोट होती है। जो विकारों
से परे है ऐसे शिशु और मुनि को वस्त्रों की क्या जरूरत है। २०. धर्म और धन दोनों औषधि हैं लेकिन धर्म 'टॉनिक' है, केवल पीने की
दवा है और धन 'मरहम' है वह बाहर से लगाने की दवा है, दोनों का
सही प्रयोग जीवन को स्वस्थ बनाता है। २१. हमें केवल तख्त पर एक नहीं होना है अपितु वक्त पर भी एक होना
है। यदि देश के सभी धर्माचार्य तख्त और वक्त पर एक हो जायें तो समाज और देश का कायाकल्प हो सकता है।
आत्मा ही परमात्मा है, "संसार के सभी प्राणी निज स्वभाव सत्ता से समान हैं, उनमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है, उनसे ऊँच-नीच का भाव रखना दुर्गति का कारण है, कोई भी मानव निज स्वभाव श्रद्धा और सत्पुरुषार्थ द्वारा भगवान बन सकता है। धर्म को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता, धर्म किसी बाहरी क्रियाकाण्ड में नहीं है, धर्म आत्मा का स्वभाव है। अस्तु, प्रत्येक क्रिया आध्यात्मिक भावों से पूर्ण होना चाहिए। जो क्रिया अध्यात्म भावों से शून्य है वह आडम्बर मात्र है। कोई भी व्यक्ति मोह, माया, ममता, राग, द्वेष, अहंकार पर विजय प्राप्त कर अन्तरोन्मुखी वृत्ति के द्वारा परमात्म पद प्राप्त कर सकता है। सत्य को स्वीकार करना ही मानव का कर्तव्य है।"
सोलहवीं शताब्दी के परम आध्यात्मिक संत प्रथम युग चेतना के गायक, युग दृष्टा, जन-जन में स्वतंत्रता का सिंहनाद करने वाले श्री जिन तारण तरण स्वामी जी ने आज से ५५० वर्ष पूर्व सम्पूर्ण देश में भ्रमण कर यह संदेश भारत की जनता को दिया था। उनकी देशना को सुनकर लाखों लोगों ने बिना किसी भेदभाव के वास्तविक धर्म को स्वीकार किया था।
संत तारण स्वामी का जन्म विक्रम संवत् १५०५ में अगहन शुक्ल सप्तमी को जबलपुर जिले के कटनी नगर से १४ कि.मी. दूर पुष्पावती नामक स्थान पर हुआ था । आपकी माता का नाम वीरश्री देवी और पिता का नाम श्री गढ़ाशाह जी था। आप बाल ब्रह्मचारी थे।
भारत कृतज्ञ है कि उसकी गोदी में ऐसा महानतम नक्षत्र करूणा और ज्ञान का संदेश लेकर आया कि अपनी महानता से भारत को महान बना गया, मिथ्यात्व के गहन अंधकार में बाह्य क्रियाकाण्डों और आडम्बरों में उलझे जनमानस को अहिंसा और सहज विश्वासवर्द्धक स्वर्णिम किरणों सदृश्य पूंजीभूत ज्ञान का प्रकाश दिया। जैन जगत धन्य है कि जन-जन में समभाव, स्नेह, करूणा, क्षमता और संयम का प्रतिमान उपस्थित करने वाले संत श्री तारण स्वामी अपने आप में अनूठे व्यक्तित्व थे। इसी माटी में खेले इन्हीं नदियों का जल पीकर बड़े हुए और अपने सद्विचारों से धरती को महान बना गये, उनका जीवन भारतीय जन मानस के लिए आलोकित प्रकाश स्तम्भ है।
आचार्य श्री का जीवन ज्ञान और संयम की प्रयोगशाला था, उनका उद्देश्य तरण तो था ही, साथ में विश्व के लोगों को जीने का उद्देश्य बतलाना भी