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श्री कमलबत्तीसी जी
श्री तारण स्वामी जैन धर्म के उपासक, जिनेन्द्र के अनुगामी थे, उन्होंने धर्म के नाम पर होने वाले इन मिथ्या आडंबरों का स्पष्टीकरण और धर्म से इनका उन्मूलन किया यही विशेष बात है।
प्रश्न जैन धर्म में मूर्ति पूजा तो अनादि से है ?
उत्तर - जैन धर्म आत्म स्वभावाश्रित स्वाधीनता का मार्ग है। जहाँ “सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " है वहां अपने शरीरादि की मान्यता और पकड़ छोड़ने पर ही आत्मानुभव सम्यक्दर्शन होता है तभी मुक्ति का मार्ग बनता है। जब तक शरीरादि जड़ पदार्थों में एकत्व अपनत्व रहेगा, वहाँ सम्यक्दर्शन हो ही नहीं सकता, वहां देव के नाम पर यह विपरीत अभिनिवेश कैसे हो सकता है ?
भगवान महावीर स्वामी के ६८३ वर्ष बाद तो जिनवाणी का लेखन हुआ, उस समय तक श्रुतज्ञान के बल से ही धर्म साधना और प्रभावना होती थी। समय की विपरीतता, पंचमकाल कलियुग के साथ ही धर्म का ह्रास एवं साम्प्रदायिकता और मतभेद पैदा हो गये। उसी समय आद्य शंकराचार्य द्वारा जैन धर्म को नास्तिक अनीश्वरवादी घोषित करने से जैन धर्मावलंबियों ने मूर्ति पूजा की स्थापना कर समाज को और जैन धर्म को बचाया, उस समय से यह विकृति निरंतर बढ़ती हुई बहुत ही निम्न स्तर पर पहुंच गई थी जिसका समय समय पर आध्यात्मिक संत कुन्दकुन्दाचार्य, योगीन्दुदेव, मुनि रामसिंह, महानंदिदेव, आदि ने स्पष्टीकरण किया, निषेध किया, इसी आध्यात्मिक परम्परा में श्री गुरू तारण स्वामी ने इसका स्पष्टीकरण किया और अपने अनुयायियों को इस वितण्डावाद से दूर रखकर अध्यात्म साधना में लगाया।
प्रश्न आप लोग षट् आवश्यक मानते हो या नहीं, फिर उसका पालन कैसे करते हो ?
उत्तर - हम लोग षट् आवश्यक को निचली भूमिका में आवश्यक मानते हुए उसका पूर्णत: पालन करते हैं और अपने जीवन को भी उसी रूप बनाते हैं। हम षट् आवश्यक को पुण्य बंध के कारण मानते हैं, धर्म नहीं मानते । श्री गुरु महाराज ने श्रावकाचार ग्रंथ में षट् आवश्यक की विवेचना गाथा क्रं. ३०७ से ३७७ तक, शुद्ध और अशुद्ध षट् आवश्यक का वर्णन किया है। हम लोग शुद्ध षट् आवश्यक को मानते हैं और पालन करते हैं और इसके लिये हमारे यहां मन्दिर विधि ( भावपूजा) का इतना विशेष महत्व है कि उसमें यह षट्
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श्री कमलबत्तीसी जी आवश्यक की पूर्ति हो जाती है। इसी भावपूजा के अंतर्गत अध्यात्म आराधना षट् आवश्यक और देव गुरू शास्त्र पूजा का सर्वांगीण विवेचन किया गया है, जिसे आप स्वयं पढ़कर देख सकते हैं ।
प्रश्न- गुरू महाराज के ग्रंथों की टीका करने, प्रकाशन कराने का क्या उद्देश्य है ?
उत्तर- गुरु महाराज के ग्रंथों के सत्यधर्म की देशना को लोग पढ़ें, समझें और धर्म प्रभावना हो । तारण स्वामी और तारण पंथ की पूरे देश में जानकारी हो और सभी भव्य जीव मुक्ति के मार्ग पर लगें, सत्य धर्म को समझें, यही उद्देश्य है।
प्रश्न- जैन धर्म में इतने भेद साम्प्रदायिक प्रवृत्तियां चल रही हैं पूजा पाठ, साधना तथा व्रत संयम में इतना विरोधाभास चल रहा है, इसमें आप लोगों की क्या भूमिका है तथा इसका समाधान कैसे करते हैं ?
उत्तर- अध्यात्मवाद ज्ञानमार्ग में कोई साम्प्रदायिक भेदभाव नहीं होता। मुक्तिमार्ग का पथिक किसी भी साम्प्रदायिक सामाजिक बाह्य क्रियाकाण्ड में नहीं उलझता और आत्म साधना में इन चीजों का कोई महत्व भी नहीं होता । जैन धर्म तो एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा शुद्धात्मा का उपासक है। इसमें जबसे अज्ञान जनित बाह्य क्रिया कांड, जड़वाद की मान्यता हुई तबसे यह साम्प्रदायिक भेदभाव पूजा पाठ, साधना और बाह्य आचरण में मतभेद विरोध और टकराव शुरू हो गया। श्री तारण स्वामी ने इन्हीं सब कारणों से भगवान महावीर की शुद्ध आम्नाय जो शुद्ध अध्यात्मवादी वीतरागता का मार्ग है, उसका प्रतिपादन किया। हम लोग भी उसी लक्ष्य को लेकर अपनी साधना करते हुए सत्य धर्म की प्रभावना कर रहे हैं। हम किसी साम्प्रदायिक भेदभाव में तथा पूजा-पाठ आदि क्रियाओं में उलझते ही नहीं हैं। सबके बीच आने जाने और प्रवचन करने में हमारा एक ही लक्ष्य, सत्य धर्म की बात बताना और जीवों को अध्यात्म की ओर उन्मुख करने का उद्देश्य रहता है।
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हम सबके बीच इस समन्वय के साथ चलते हैं कि जिस तरह एक परिवार में चार भाई होते हैं वह अपना धंधा पानी अलग अलग करते हैं, खानपान, रहन-सहन अलग होता है लेकिन परिवार की मर्यादा और धन कमाने का ही एक लक्ष्य रहता है। इसी तरह हमें भी जैन धर्म की मर्यादा रखते हुए