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श्री कमलबत्तीसी जी से तारण पंथ की स्थापना हुई। प्रश्न-श्री तारण स्वामी का संक्षिप्त जीवन परिचय क्या है?
उत्तर- श्री तारण स्वामी आध्यात्मिक क्रांतिकारी वीतरागी संत थे, वे सोलहवीं शताब्दी में हुए थे, उनका जन्म मिति अगहन सुदी सप्तमी विक्रम संवत् १५०५ में पुष्पावती (वर्तमान बिलहरी) जिला-जबलपुर में हुआ था। उनकी माता का नाम वीर श्री देवी एवं पिता का नाम श्री गढ़ाशाह जी था। बाल्यकाल से ही वे विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। ग्यारह वर्ष की बालवय में उन्हें सम्यक्दर्शन हो गया था। इक्कीस वर्ष की उम्र में उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लिया। आत्म साधनारत रहते हुए तीस वर्ष की उम्र में उन्होंने ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण की। उनकी संयम, साधना, तप आराधना सेमरखेड़ी (सिरोंज, जिला - विदिशा, म.प्र.) के बियावान वन की गुफाओं में होती थी। वहां दो-दो, चार - चार दिन तक ध्यान समाधि में लीन रहते हुए अपने आपको पूर्ण निस्पृह, निर्ग्रन्थ वीतरागी बनाया और साठ वर्ष की आयु में निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी साधु पद धारण किया।
साधु पद पर वे ६ वर्ष, ५ माह, १५ दिन तक रहे। इसमें भावलिंग पूर्वक छठे - सातवें गुणस्थान में झूलते हुये श्रेणी माड़ने का प्रबल पुरूषार्थ किया। काललब्धि और संहनन न होने से निसई जी मल्हारगढ़ में मिति जेठ वदी ६, विक्रम संवत् १५७२ में समाधि मरण पूर्वक सर्वार्थ सिद्धि को प्रयाण किया।
प्रश्न - श्री तारण स्वामी को सम्यकदर्शन कब और कैसे हुआ? इसका प्रमाण क्या है?
उत्तर- श्री तारण स्वामी का जीव भगवान महावीर स्वामी के समवशरण में राजा श्रेणिक के साथ रहा। वहां धर्म के सत्स्वरूप को सुना समझा, आत्मसात् किया और धर्म के विशेष बहुमान तथा सातिशय पुण्य को लेकर दो हजार वर्ष बाद पुष्पावती में पैदा हुए और नाना जी की मृत्यु का निमित्त मिलने पर भेदज्ञान पूर्वक सम्यकदर्शन हो गया। इसका प्रमाण मालारोहण जी ग्रंथ एवं छद्मस्थवाणी ग्रंथ में उपलब्ध है। इस सम्बन्ध में श्री पंडित फूलचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री बनारस वालों ने अपने अभिनंदन ग्रंथ में बहुत स्पष्ट और सप्रमाण लिखा है।
प्रश्न- श्री तारण स्वामी को क्षायिक सम्यक्त्व हुआ इसका प्रमाण क्या है?
श्री कमलबत्तीसी जी उत्तर -श्री तारण स्वामी भगवान महावीर स्वामी के पादमल में रहे. धर्म का विशेष बहुमान किया तथा दर्शन मोहनीय की क्षपणा का आरम्भ किया। जो आगे काललब्धि आने पर क्षायिक सम्यक्त्व हो गया।
इसका प्रमाण श्री गोम्मटसार कर्मकांड, जयधवल, महाधवल, लब्धिसार -क्षपणासार तथा छद्मस्थवाणी में मिलता है।
प्रश्न - श्री तारण स्वामी सर्वार्थ सिद्धि को गये इसका प्रमाण क्या है?
उत्तर - छठवें - सातवें गुणस्थान में झूलने वाले भाव लिंगी वीतरागी साधु सर्वार्थ सिद्धि जाते हैं। श्री तारण स्वामी भावलिंगी वीतरागी साधु थे, श्रेणी माड़ने का पुरूषार्थ किया लेकिन संहनन न होने से श्रेणी न माड़ सके इसलिए सर्वार्थ सिद्धि गये । इसका प्रमाण स्व. पंडित श्री कैलाशचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री बनारस द्वारा लिखित करणानुयोग प्रवेशिका में दिया है तथा छद्मस्थवाणी में भी लिखा है। प्रश्न-तारण पंथ में मूर्ति पूजा क्यों नहीं करते?
उत्तर-तारण पंथ अध्यात्मवादी ज्ञानमार्ग है, इसमें जड़ अचेतन या पर जीव तथा पर्याय का भी लक्ष्य नहीं रखा जाता, वहां मूर्ति पूजा आदि करने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि विपरीत मान्यता को ही मिथ्यात्व कहते हैं। जब तक गृहीत - अगृहीत मिथ्यात्व रहेगा तब तक आत्मदर्शन और मुक्ति नहीं हो सकती।
प्रश्न - मुगल शासकों के धार्मिक आक्रमण आदि की परिस्थितियों के कारण तारण स्वामी ने यह सब किया था या और कोई विशेष बात है?
उत्तर-वीतरागी आध्यात्मिक संत किसी सामाजिक या राजनैतिक परिस्थिति से प्रभावित नहीं होते, वह तो सत्य धर्म की प्रतिष्ठा करते हैं और अध्यात्मवाद से जीवों को कल्याण के मार्ग पर लगाते हैं। यह जो धर्म के नाम पर क्रियाकांड, चंदा - धंधा, पूजा - प्रतिष्ठा आदि होते हैं, उनका निर्मूलन अपने सत्स्वरूप के आश्रय से करते हैं, इसमें जो धर्म के नाम पर मनमानीमायाचारी करते हैं, उनका सहज उन्मूलन हो जाता है। जैन धर्म तो द्रव्य की स्वतंत्रता का उद्घोषक शुद्ध अध्यात्मवादी ज्ञानमार्ग है, इसमें मूर्ति पूजा और बाह्य क्रिया कांड का तो कोई समावेश ही नहीं है।