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श्री कमलबत्तीसी जी पूजा-पाठ,खान-पान को लेकर आपस में लड़ते बैर-विरोध में पड़े हैं, जिससे स्वयं का भी अहित हो रहा है और दूसरों का भी हो रहा है, पर जब तक सम्यग्ज्ञान न होवे वह भी क्या करें? अज्ञान की महिमा भी अगम है, अज्ञान जो भी न कराये थोड़ा है, इसलिए इस विवाद में न पड़कर अपने को स्वयं को देखना है, स्वयं का निर्णय करना है और स्वयं के अनुभव के आधार पर मुक्ति मार्ग पर चलना है, यहाँ संसार की अपेक्षा नहीं है।
प्रश्न- भगवान महावीर ने ऐसे एकान्त पक्ष का प्रतिपादन तो नहीं किया, उनके समवशरण में लाखों जीव, साधु, आर्यिका, श्रावक, श्राविका थे, अगर पहले निश्चय सम्यग्दर्शन की बात होती, शुद्धात्म तत्व की ही चर्चा उपदेश होता तो इतने जीव संयमी त्यागी साधु कैसे होते?
उत्तर- भगवान महावीर ने ही द्रव्य की स्वतंत्रता और वस्तु का स्वरूप बताया है। उन्होंने ही निज शुद्धात्म स्वरूप के आश्रय धर्म की व्याख्या की है। जगत तो पराधीन - पराश्रितपने की मिथ्या मान्यताओं में भ्रमित हो रहा है, स्वाधीनता और द्रव्य की स्वतंत्रता तो जैन दर्शन का मूल आधार है। किसी पर परमात्मा के आश्रय उसकी पजा भक्ति करने या बाह्य क्रिया-कांड, पूजा-पाठ करने से कभी मुक्ति मिलने वाली नहीं है। मक्ति तो अपने निज शुद्धात्म तत्व रत्नत्रयमयी ज्ञान गुणमाला को उपलब्ध होने सम्यग्दर्शन होने पर ही होगी। इसमें व्यवहार रत्नत्रय बाह्य आचरण का निषेध नहीं है, पर मात्र इनके आश्रय मुक्ति नहीं होगी, इनसे तो पुण्य बंध और संसार का ही चक्र चलेगा। संयम, सदाचार का पालन करने का कभी किसी ने निषेध नहीं किया। भगवान महावीर के समवशरण में लोग गये, धर्म की देशना सुनी, आत्म कल्याण करने मुक्ति पाने की चर्चा सुनी और जिसको जैसा समझ में आया वह वैसा करने लगा। भगवान उसे भी रोक नहीं सकते, वह भी किसी का कुछ नहीं कर सकते क्योंकि यदि कुछ करते होते, तो भगवान आदिनाथ के समवशरण में यही भगवान महावीर का जीव मारीचि की पर्याय में बैठा था । भरत चक्रवर्ती का पुत्र और भगवान आदिनाथ का पोता था, तीर्थंकर होने की घोषणा भी कर दी, लेकिन मोक्षमार्ग में नहीं लगा सके । अज्ञान मिथ्यात्व के कारण ३६३ मत विपरीत चलाये, अनन्त पर्यायों में परिभ्रमण किया और सुलटने का काल आया तो सिंह की पर्याय में निज शुद्धात्मानुभूति हुई, सम्यग्दर्शन हुआ और दसवें भव में महावीर बने।
श्री कमलबत्तीसी जी प्रश्न - जब केवलज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा हैं, उनके ज्ञान में त्रिलोक का त्रिकालवी परिणमन प्रत्यक्ष झलक रहा है,कौन कैसा है,यह सब भगवान के ज्ञान में आ रहा है, फिर वे सभी बातें स्पष्ट नहीं बताकर वस्तु स्वरूप सिद्धान्त का ही निर्णय क्यों देते?
उत्तर-यह पवित्र जैन दर्शन का मार्ग अनेकान्त, स्याद्वादमयी है। द्रव्य की स्वतंत्रता एक -एक परमाणु और पर्याय का परिणमन स्वतंत्र है। जीव की पात्रता अनुसार उसका परिणमन, निमित्त, नैमित्तिक सम्बंध और पांच समवाय के आधार पर सब हो रहा है। इसमें कोई कुछ भी नहीं कर सकता । यहाँ आपने जो प्रश्न किया है उसका सैद्धान्तिक निर्णय और वस्तु स्वरूप बताया जा रहा है। कौन कैसा है, क्या कर रहा है, इससे तो भगवान को कोई प्रयोजन ही नहीं है। व्यक्तिगत बात करना राग-द्वेष का कारण है।
प्रश्न- यह बात, ऐसा निर्णय, ऐसा मार्ग तो हर जगह नहीं बताया और सब जीवों को इस बात का पता भी नहीं चलता, संसार में तो लोग जाति, सम्प्रदाय, मान्यतायें बांधे हुये हैं?
उत्तर- जिस जीव की पात्रता पकती है, होनहार उत्कृष्ट होती है, काल लब्धि आती है, उसे सब निमित्त सहज में मिल जाते हैं। धर्म किसी जाति सम्प्रदाय से नहीं बंधा, जीव भी किसी बंधन में नहीं बंधे, यह सब संसार चक्र तो जीव की अज्ञानता के कारण चल रहा है। जब जीव जागता है तो फिर कोई जाति सम्प्रदाय मान्यता बाधक नहीं बनती, जीव की अन्तर भावना जागे तो कहीं से भी, कैसे भी आत्मोन्मुखी हो सकता है, इसके लिए एक मात्र सत्संग सहकारी है। प्रश्न- तारण पंथ की विशेषता क्या है?
उत्तर-तारण पंथ शुद्ध अध्यात्मवादी मोक्षमार्ग है। जिनेन्द्र परमात्माओं द्वारा जो स्वतंत्रता का मार्ग बताया गया है, वही जैन धर्म की शुद्ध आम्नाय यह तारण पंथ है। तारण पंथ अर्थात् - संसार से तरने का मार्ग।
प्रश्न-जब जैन धर्म अनादि से है फिर यह तारण पंथ की स्थापना का मूल कारण क्या है?
उत्तर-जैन धर्म की शुद्ध आम्नाय अध्यात्मवाद ज्ञानमार्ग में जो व्यवधान आ गये थे, धर्म के नाम पर जड़वाद एवं क्रियाकांड का पोषण हो रहा था, उसको तारण स्वामी ने सत्यधर्म, अध्यात्मवाद का शंखनाद कर दूर किया। भव्य जीवों को धर्म का सत्स्वरूप अपने आत्मा का बोध कराया। इन्हीं कारणों
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