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श्री कमलबत्तीसी जी प्रश्न- स्वाध्याय करने से क्या लाभ है?
समाधान-स्वाध्याय से तर्कणाशील बुद्धि का उत्कर्षण होता है। परमागम की स्थिति का पोषण होता है। मन इन्द्रियों और चारों संज्ञाओं की अभिलाषा का निरोध होता है। संशय का छेदन होता है। क्रोधादि कषायों का भेदन होता है। दिनों दिन तप में वृद्धि होती है। संवेग भाव बढ़ता है। परिणाम प्रशस्त होते हैं। समस्त अतिचार दूर होते हैं। अन्यथा वादियों का भय नहीं रहता तथा जिन शासन की प्रभावना करने में मुमुक्षु समर्थ होता है। प्रश्न-आत्म ध्यान की विशेषता क्या है?
समाधान-जो अपनी आत्मा को शरीर से भिन्न अनुभव करता है, तीनों गुप्तियों का पालन करता है, बाह्य अर्थ की तो बात ही क्या, अपने शरीर से भी निस्पृह है वह सम्यक्ध्यान में लीन योगी उत्कृष्ट व्युत्सर्ग का धारक और पालक है।
प्रश्न-विराग भाव किसे कहते हैं ? समाधान - सम्यक्दर्शन, आत्मा की ऐसी परिणति है कि सम्यकदृष्टि की सामान्य मनुष्यों की तरह क्रिया मात्र में अभिलाषा नहीं होती, जैसे प्रत्येक प्राणी को अपने अनुभूत रोग में उपेक्षा भाव होता है, वह उसे पसन्द नहीं करता, उसी तरह सम्यक्दृष्टि का सब प्रकार के भोगों में उपेक्षा भाव होता है। सम्यक्दृष्टि पूर्व संचित कर्मों के उदय से प्राप्त हुये भोगों को भोगता है तो भी तत्संबंधी राग भाव का अभाव होने से वह उसका भोक्ता नहीं है। यह स्वामित्व (कर्तृत्व) का अभाव भेदज्ञान होने पर ही होता है तथा इस ज्ञान के साथ ही विषयों की ओर से अरूचि हो जाती है, उसे विराग भाव कहते हैं। प्रश्न-बंध और मोक्ष का आधार क्या है?
समाधान - राग और द्वेष से की गई प्रवृत्ति और निवृत्ति से जीव के बंध होता है और तत्व ज्ञान पूर्वक की गई उसी प्रवृत्ति और निवृत्ति से मोक्ष होता है।
प्रश्न - राग द्वेष आदि आत्मा में ही होते हैं, वह चेतन-अचेतन, जड़ में होते नहीं। फिर इन्हें-पर अचेतन कैसे माना जाये?
समाधान-ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है और राग द्वेष आदि वैभाविक अवस्था है, अत: न ज्ञान राग है, न राग ज्ञान है, ज्ञान तो स्व-पर प्रकाशक है किन्तु राग का वेदन तो होता है परन्तु उसमें पर स्वरूप का वेदन नहीं होता वह अचेतन है, पर है और ज्ञान चिद्रूप है।
प्रश्न-जीव के जो राग-द्वेष रूप भाव होते हैं, क्या वे स्वयं होते हैं या उनका निमित्त कारण है?
श्री कमलबत्तीसी जी समाधान - निश्चय से अपने चैतन्य स्वरूप में तो कोई राग द्वेषादि हैं ही नहीं, परंतु जीव विभाव रूप परिणमन करता है, उस समय कर्मोदय निमित्त से राग-द्वेषादि होते हैं।
प्रश्न-कर्म बंध होने का कारण तथा कर्मों से मुक्त होने का उपाय क्या है?
समाधान- आत्मा और ज्ञान का तादात्म्य सम्बन्ध होने से आत्मा निशंक होकर ज्ञान में प्रवृत्ति करता है। यह ज्ञान क्रिया आत्मा की स्वभाव भूत है। उसी तरह आत्मा और क्रोधादि आस्रव का तो संयोग सम्बन्ध होने से दोनों भिन्न हैं किन्तु ज्ञान से यह जीव उस भेद को नहीं जानकर निशंक होकर क्रोधादि में आत्म रूप से प्रवृत्ति करता है, अत: क्रोधादि मोह राग-द्वेष रूप परिणमन करता है। इसी प्रवृत्ति रूप परिणाम को निमित्त करके स्वयं ही पुद्गल कर्म का संचय होता है।
जो भेदज्ञान पूर्वक भिन्न-भिन्न जानता है, उसके एकत्व का अज्ञान मिट जाता है और कर्म बंध भी रूक जाता है। कर्म बंधन का उच्छेद तो शुद्धात्मा के संवेदन से होता है। जितनी क्रिया है, वह कर्म बंध का कारण है और एक मात्र शुद्ध चैतन्य प्रकाश मोक्ष का उपाय है। प्रश्न-शुद्धात्मानुभूति को स्थायी करने का क्या उपाय है?
समाधान - जिसका मन राग-द्वेष से आकुल है, वह आत्मानुभवन नहीं कर सकता। जिसका मन राग-द्वेष रूपी तरंगों से रहित है, वह आत्मानुभवन करता है । सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान सहित संयम तप की साधना से शुद्धात्मानुभूति स्थायी होती है। प्रश्न- सम्यचारित्र की साधना का मूल आधार क्या है?
समाधान - तत्व दृष्टि से मेरा स्वरूप तो चैतन्य चमत्कार मात्र है, शेष सभी औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव, वैभाविक होने से मुझसे भिन्न हैं,मैं शुद्ध परम पारिणामिक भाव वाला, ममल स्वभावी ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ। बस इसी का स्मरण ध्यान, चिन्तन-मनन, रमना-जमना सम्यक्चारित्र है। प्रश्न - जिनवाणी की विशेषता क्या है?
समाधान - जिनवाणी रूपी अमृत का पान करने से चित्त का खेद, सन्ताप, अज्ञान और व्याकुलता दूर होती है। ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञान की स्थिरता का नाम ही ध्यान है, जो पुरूष भक्ति से जिनवाणी का स्वाध्याय रूप पूजन भजन करते हैं, वे वास्तव में जिन भगवान को ही पूजते हैं:
क्योंकि सर्वज्ञ देव-जिनवाणी और जिनेन्द्र देव में कुछ भी अन्तर नहीं कहते ८१ हैं। जिनवाणी बोलता हुआ दर्पण है।