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श्री कमलबत्तीसी जी gp भारत भ्रमण समीक्षा ge
-.बसंत
प्रश्न-ॐ नमः सिद्ध और ॐ नमः सिद्धेभ्यः में क्या अन्तर है और इसका अर्थ क्या है?
उत्तर-ॐनमः सिद्धेभ्य:- सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार हो। ॐ नम: सिद्ध-सिद्ध स्वरूप को नमस्कार हो।
"सिद्धेभ्यः" बहुवचन है, इसमें सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार है, जो श्रद्धा की अपेक्षा परोन्मुखी दृष्टि है। "सिद्ध" एकवचन है, इससे सिद्ध स्वरूप को नमस्कार होता है, इसमें श्रद्धा अपेक्षा सिद्ध परमात्मा भी आ गये और अपना सिद्ध स्वरूप भी आ गया तथा दृष्टि की अपेक्षा स्वोन्मुखी दृष्टि है, जो सम्यग्दर्शन धर्म का हेतु है। श्री गुरू महाराज का यह सिद्ध मंत्र है जो कई ग्रंथों में दिया गया है। प्रश्न- जय तारण तरण का क्या अर्थ है? उत्तर - तारण तरण एक सार्वभौम शब्द है, जिसमें जिनेन्द्र परमात्मा और सभी भगवन्त आ जाते हैं, क्योंकि यह सब तारण तरण कहलाते हैं। वीतरागी सद्गुरू साधु भी तारण तरण होते हैं, धर्म भी तारण तरण होता है
और निज आत्मा भी तारण तरण है। जय तारण तरण में सबका अभिवादन हो जाता है। विशेष - हाथ जोड़कर सबको जय तारण तरण कहें, जय जिनेन्द्र कहे, जय राम जी कहें, नमस्कार कहें-प्रयोजन हमारा सबसे प्रेम मैत्री भाव हो, कषाय की मन्दता हो। प्रश्न - वर्तमान समय में तारण स्वामी की विशेष देन क्या है?
उत्तर - वर्तमान समय में तारण स्वामी ने सत्य धर्म का यथार्थ स्वरूप बताया है। जैसा जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा और जैसा वस्तु का स्वभाव है, उसे स्पष्ट रूप से जगत के सामने रखा, यही उनकी विशेष देन है। प्रश्न-धर्म क्या है? अपना इष्ट कौन है? पूज्य आराध्य कौन है?
उत्तर-शरीर, वाणी, मन आदि से धर्म नहीं होता, क्योंकि वे तो सभी आत्मा से भिन्न अचेतन पर द्रव्य हैं, उनमें आत्मा का धर्म नहीं है और मिथ्यात्व, हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रम्ह आदि पाप भाव या दया- दान, पूजा भक्ति आदि पुण्य भाव से भी धर्म नहीं होता क्योंकि वह दोनों विकारी भाव हैं।
श्री कमलबत्तीसी जी आत्मा की निर्विकारी शुद्ध दशा वह ही धर्म है। उसका कर्ता आत्मा स्वयं ही है। वह धर्म - वीतराग देव, गुरू, शास्त्र आदि कहीं बाहर से नहीं आता, परन्तु निज शुद्ध ज्ञायक आत्मा के ही आश्रय से प्रगट होता है। आत्मा ज्ञान और आनन्द आदि निर्मल गुणों की शाश्वत खान (भंडार) है। सत् समागम से श्रवण, मनन के द्वारा उसकी यथार्थ पहिचान करने पर आत्मा में से जो अतीन्द्रिय आनन्द युक्त निर्मल अंश प्रगट होता है वह ही धर्म है । अनादिअनन्त एक रूप चैतन्य मूर्ति भगवान आत्मा वह अंशी है, अपने शुद्ध अखंड परम पारिणामिक भाव स्वरूप निज आत्म द्रव्य का ही निरन्तर अवलम्बन वर्तता है, यही उसका इष्ट - आराध्य है। इसी (शुद्धात्म स्वरूप) के ही
आधार से धर्म कहो-या शान्ति कहो-या मुक्ति कहो, सब प्रगट होता है। किसी पर परमात्मा या परावलम्बन से धर्म नहीं होता.पर के आश्रय से पर को इष्ट आराध्य मानने से कभी मुक्ति नहीं होती।
प्रश्न-जब परमात्मा या परावलम्बन से धर्म या मुक्ति नहीं होती. तो यह सिद्ध स्वरूप, सिद्ध परमात्मा अरिहन्त परमात्मा की बात क्यों करते हो? देव, गुरू, शास्त्र को क्यों मानते हो?
उत्तर -जगत में सर्वश्रेष्ठ, परमहित रूप, परम मंगल स्वरूप तथा परमशरण रूप ऐसा सिद्ध पद सर्वथा अभिनन्दनीय है। सिद्ध पद की प्राप्ति के उपाय बताने वाले सद्गुरू वीतरागी संत होते हैं जो स्वयं उस मार्ग पर चलते हैं तथा सिद्ध पद प्राप्ति का मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र रत्नत्रय स्वरूप निज शुद्धात्मा है ; जिसको अरिहन्त सर्वज्ञ परमात्मा ने कहा है, सद्गुरू उसका पालन करते हैं और बताते हैं, शास्त्र (जिनवाणी) में वह लिखा है, इसलिये देव गुरू शास्त्र के प्रति बहुमान भक्ति भाव आता है। ___ अरिहन्तादि का स्वरूपवीतराग विज्ञानमय होता है, इसी कारण से अरिहन्त सिद्ध आदि स्तुति योग्य महान हुये हैं। पंच परमेष्ठी का मूल स्वरूपतो वीतरागी व विज्ञानमय है। इसका ज्ञान ही परमइष्ट है। शक्ति से तो सभी आत्मायें शुद्ध हैं, परन्तु रागादि विकार अथवा ज्ञान की हीनता की अपेक्षा से जीव संसारी दीन-हीन बना है। अपने ज्ञान में विवेक प्रगट हुआ तो जिसके निमित्त से बात समझ में आई - उन वीतरागी देव, गुरू, शास्त्र का स्मरण कर नमस्कार करते हैं, उनके उपकार नहीं भूले जाते।
प्रश्न-देव स्वरूप जो अरिहन्त सिद्ध परमात्मा है वह इष्ट आराध्य और नमस्कार करने योग्य है या निज शबात्म तत्व इष्ट आराध्य है?