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श्री कमलबत्तीसी जी
करना चाहिये ।
(२४) तप का मूल - सम्यक्दर्शन है, तना-दश धर्म हैं, शाखा-बारह भावना हैं, पत्र-पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति हैं, पुष्प - - केवलज्ञान है, हवायें सुगंध - बाईस परीषह जय हैं। फल-घाति, अघाति कर्म का क्षय सिद्ध पद है।
(२५) जिसमें द्रव्य रूप से नित्य और स्पष्ट ज्ञान के द्वारा जानने योग्य, चराचर जगत के अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायाकार प्रतिबिम्बित होते हैं, उस परम ब्रह्म स्वरूपमय होने के लिये जो तत्पर होते हैं, उन्हें सन्त कहते हैं।
(२६) बाह्य विषयों का त्याग द्रव्य त्याग है और अन्तरवर्ती, विषय सम्बन्धी विकल्पों का त्याग भाव त्याग है। दोनों प्रकार से त्याग करने वाले विश्वपूज्य होते हैं।
(२७) जो योगी शरीरादि से हटकर आत्मा को आत्मा में ही स्थिर करता है और व्यवहार प्रवृत्ति-निवृत्ति से दूर रहता है, उसको स्वात्मा के ध्यान से वचनातीत आनन्द होता है।
(२८) मेरा कुछ भी नहीं है, इस प्रकार के भाव को आकिंचन कहते हैं। इस आकिंचन भाव को भाने से ज्ञायक स्वभाव आत्मा का अनुभव होता है। (२९) पहले किये हुये शुभाशुभ कर्म, अपना समय आने पर जब उदय को प्राप्त होते हैं, तब किसी चेतन इन्द्रादि के द्वारा और अचेतन मंत्र आदि के द्वारा या दोनों के द्वारा रोके नहीं जा सकते।
(३०) आत्मा के द्वारा आत्मा में आत्मा का पर के आकार से रहित रूप से संवेदन होता है, उसे ही स्वसंवेदन कहते हैं। जो स्व संवेदन से सिद्ध है, उसे ही अनुभव सिद्ध कहते हैं।
(३१) कर्म से और कर्म के कार्य रागादि भावों से भिन्न चैतन्य स्वरूप आत्मा को नित्य भाना चाहिये। उससे नित्य आनन्द मय मोक्ष पद की प्राप्ति होती है।
(३२) मन के एकाग्र होने से स्व संवेदन के द्वारा आत्मा की अनुभूति होती है, उसी अनुभूति से जीवन मुक्त दशा और अन्त में परम मुक्ति प्राप्त होती है।
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प♛ सम्यक् चारित्र सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
श्री कमलबत्तीसी जी
प्रश्न- सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की प्राप्ति दुर्लभ क्यों है ?
समाधान - जीव का अनादि अज्ञान मिथ्यात्व कारण है, काल लब्धि होनहार कार्य है । रत्नत्रय की प्राप्ति बड़े ही सौभाग्य से होती है अतः उसे पाकर सतत् सावधान रहने की जरूरत है। एक क्षण का भी प्रमाद बाधक है, पूर्व संस्कार भ्रम में डालते हैं।
प्रश्न- निश्चय-व्यवहार रत्नत्रय की प्ररूपणा क्यों की गई है ? समाधान - निश्चय से वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है। जैसे आत्मा का चैतन्य स्वभाव ही उसका धर्म है किन्तु संसार अवस्था में वह चैतन्य स्वभाव तिरोहित होकर गति इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में, चौदह गुणस्थानों के द्वारा विभाजित होकर नाना रूप हो गया है। यद्यपि द्रव्य दृष्टि से वह एक ही है, इसी कारण भगवान जिनेन्द्र देव ने जो धर्मोपदेश दिया है, वह व्यवहार और निश्चय से व्यस्थापित है।
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प्रश्न
क्या मुक्ति भी दो प्रकार की होती है ?
समाधान - नहीं, परमानन्द दशा को मुक्ति कहते हैं और वह एक सी, एक ही होती है, कहने में भेद आता है। जैसे जो साधक अपनी इन्द्रियों और मन के प्रसार को संयमित कर, आत्मा के द्वारा आत्मा में आत्मा का अनुभव करके कृत् - कृत्य अवस्था को प्राप्त करता है, उसे प्रथम जीवन्मुक्ति, पश्चात् परम मुक्ति होती है, इसे भाव मोक्ष, द्रव्य मोक्ष भी कहते हैं।
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प्रश्न- व्यवहार चारित्र से क्या लाभ है ?
समाधान - संयम तप आदि करने से ज्ञानावरण आदि कर्मों की, शरीराशक्ति की, राग द्वेष की और विषयों की चाह की हानि होती है, उनमें कमी आती है तथा एकाग्र चित्त होकर आत्मा का स्मरण ध्यान होता है। दु:ख को सहन करने की शक्ति आती है, सुख में आसक्ति नहीं होती, धर्म की प्रभावना होती है, ब्रह्मचर्य में निर्मलता आती है।
प्रश्न- मनुष्य भव की सार्थकता क्या है ?
समाधान
प्रथम भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति, सम्यक्दर्शन करना तथा आर्यता, कुलीनता आदि गुणों से युक्त इस उत्तम मनुष्य पर्याय का सार - मुनि पद धारण करना, जिनवाणी की शिक्षा धारण करना, विनय सम्पन्न होना, समाधिस्थ होना है।
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