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श्री कमलबत्तीसी जी
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सार सिद्धांत
(१) सम्यक्चारित्र छाया वृक्ष तुल्य है, जो संसार रूपी मार्ग में भ्रमण करने
से उत्पन्न हुई थकान को दूर करता है। (२) सम्यक्दर्शन और सम्यज्ञान के सम्पूर्ण होने पर भी चारित्र की पूर्णता
न होने पर परम मुक्ति नहीं हो सकती। (३) जैसे सम्यकदर्शन के बिना ज्ञान, अज्ञान होता है। वैसे ही सम्यज्ञान
के बिना, चारित्र भी चारित्राभास होता है। शंकादि मलों को दूर करने में, कर्मों का क्षय करने वाली आत्म शक्ति में उत्कर्षता लाने में और इन्द्रादि पद प्राप्त कराकर, मोक्ष रूप फल प्राप्त करने में, सम्यक्दर्शन को जिसका मुख उत्सुकता से देखना पड़ता है, उस सम्यक्चारित्र का माहात्म्य आश्चर्यकारी है। परिणामों की विशुद्धि के लिये पाप-परिग्रह आदि का त्याग करना चाहिये। जब तक किसी बात का संकल्प पूर्वक त्याग नहीं किया जाता, तब तक उसे न करने से ही उसके फल से छुटकारा नहीं होता। संकल्प पूर्वक त्याग न करना ही इस बात का सूचक है कि उस ओर की प्रवृत्ति में
राग है। (७) सर्व अर्थों की सिद्धि के लिये शान्त मौन रहना ही हितकर है। असत्य
बोलने की तरह, असत्य सुनने से भी यत्नपूर्वक बचना चाहिये। ब्रह्म अर्थात् अपनी शुद्ध-बुद्ध आत्मा में चर्या अर्थात् बाधा रहित परिणति को ब्रह्मचर्य कहते हैं, इसे जो निरतिचार पालते हैं, वह परमानन्द को
प्राप्त करते हैं। (९) अध्यात्म तत्व का उपदेश सुने बिना न अपनी आत्मा का बोध होता है,
न श्रद्धा । श्रद्धा के पश्चात् ही आत्मा के प्रति रूचि बढ़ती है, तभी उसमें
रमणता होती है। (१०) इन्द्रियों में - रसना इन्द्रिय । कर्मों में - मोहनीय कर्म । व्रतों में-ब्रह्मचर्य
व्रत और गुप्तियों में - मनो गुप्ति, यह चार बड़ी साधना और अभ्यास से वश में होते हैं।
श्री कमलबत्तीसी जी (११) सात तत्वों के सम्यक् परिज्ञान पूर्वक आत्म तत्व की उपलब्धि रूप
सम्यक्दृष्टि होना चाहिये। बिना आत्म ज्ञान के घर छोड़कर मुनि बनना
उचित नहीं है। (१२) असली परिग्रह तो शरीर ही है, उससे भी जो ममत्व नहीं करता, वही
परम निर्ग्रन्थ है। (१३) कर्म जन्य रागादि भावों से आत्मा की भिन्नता को जानकर, आत्मा के
यथार्थ स्वरूप का श्रद्धान और ज्ञान तथा राग और द्वेष की निवृत्ति रूप
साम्य भाव को धारण करना, यही सम्यक्चारित्र है। (१४) मोह और क्षोभ से रहित परिणाम ही साम्य भाव है, निश्चय से यही
चारित्र धर्म है। (१५) जिसका पुण्य और पाप कर्म बिना फल दिये स्वयं झड़ जाता है, वह
योगी है, उसका निर्वाण होता है, वह पुन: आस्रव युक्त नहीं होता। (१६) प्राणी मात्र में मैत्री, गुणी जनों में प्रमोद, दु:खी जीवों पर दया भाव और
अविनयी जीवों पर माध्यस्थ भाव रखने से सभी व्रत अत्यन्त दृढ़
होते हैं। (१७) जिस योगी का चित्त ध्यान में उसी तरह विलीन हो जाता है, जैसे
नमक पानी में लय हो जाता है, उसके शुभ और अशुभ कर्मों को जला
डालने वाली आत्म शक्ति रूप अग्नि प्रगट होती है। (१८) राग-द्वेष और मोह के त्याग, आगम के विनय पूर्वक अभ्यास तथा धर्म
और शुक्ल ध्यान से मनोगुप्ति होती है। (१९) आत्म ध्यान ही मुक्ति का एक मात्र परम साधन है। (२०) व्रतों का धारण, समितियों का पालन, कषायों का निग्रह, मन वचन
काय की प्रवृत्ति का त्याग और पांचों इन्द्रिय पर विजय, इसे संयम
कहते हैं। (२१) ज्ञेय और ज्ञाता में अथवा ज्ञेय युक्त ज्ञाता में, सर्वज्ञ भगवान के द्वारा
जैसा कहा गया है और जैसा उनका यथार्थ स्वरूप है तदनुसार प्रतीति
होना सम्यक्दर्शन है और तदनुसार अनुभूति होना सम्यज्ञान है। (२२) जो सांसारिक सुख से विरक्त होता है वही चारित्र में प्रयत्नशील
होता है।
(२३) मोक्षमार्ग में नित्य उद्यमशील साधुओं के लिये-शारीरिक, वाचनिक,
मानसिक ताप की शांति के लिये, तप रूपी समुद्र में अवगाहन