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श्री कमलबत्तीसी जी पात्रता की वृद्धि , साधु पद अपने आप सहजता से होता हुआ चला चलेगा। तुम स्वस्थ सावधान अपने में अभय मस्त, ज्ञानी ज्ञायक रहो। सम्यक्चारित्र पकड़ में आ गया, निश्चिंत रहो।
इसी बात को और स्पष्ट करते हुये सद्गुरू उपसंहार रूप में अन्तिम गाथा कहते हैं
गाथा-३२ जिन दिस्टि उत्त सुद्धं, जिनय ति कम्मान तिविह जोएन। न्यानं अन्मोय विन्यानं, ममल सरूवं च मुक्ति गमनं च।
शब्दार्थ-(जिन उत्त) जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है (दिस्टि सुद्ध) जिनकी दृष्टि शुद्ध हो गई (जिनय ति कम्मान) तीनों प्रकार के कर्मों को जीत लेते हैं (तिविह जोएन) त्रिविध योग से, तीनों प्रकार की (मन-वचन-काय की) एकाग्रता (न्यानं अन्मोय) ज्ञान स्वभाव में लीन, स्वभाव का आलम्बन, ज्ञानोपयोग की निरन्तर सक्रियता (विन्यानं) विज्ञान घन, विज्ञानमयी, भेद विज्ञान की साधना (ममल सरूवं च) ममल स्वरूप में रहते, लीन होकर, आत्म ध्यान में रत (मुक्ति गमनं च) मोक्ष मार्ग पर चलते, मुक्ति प्राप्त करते हैं।
विशेषार्थ-जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि जो सम्यकदृष्टि ज्ञानी जिनकी दृष्टि शुद्ध हो गई है, वह त्रिविध योग सहित, समस्त कर्मों को जीत लेते हैं अर्थात् उनके सारे कर्म क्षय हो जाते हैं।
ज्ञानी हमेशा ज्ञान विज्ञान मयी सत्स्वरूप का अवलम्बन रखते हैं और आत्म ध्यान में रत रहते हैं तथा साधु पद से अपने ममल स्वभाव में लीन होकर ब्रह्मानन्द मयी मुक्ति पद प्राप्त करते हैं।
शान समान न आन, जगत में सुख को कारण । इहि परमामृत जन्म जरा, मृत रोग निवारण ॥ कोटि जन्म तप त,ज्ञान बिन कर्म मरेंजे।
ज्ञानी के छिन माहि, त्रिगुप्ति ते सहज टरेते ॥ सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र तीनों ही आत्मा के गुण हैं। आत्मा का स्वभाव यथार्थ प्रतीति का धारी है। निज को निज, पर को पर, यथार्थ श्रद्धान करने वाला है और सर्व लोकालोक के द्रव्य, गुण,पर्यायों को एक साथ जानने वाला है। चारित्र गुण से परम वीतराग है। रत्नत्रय स्वरूप यह आत्मा - अभेद दृष्टि
श्री कमलबत्तीसी जी से एक रूप है। शुद्ध स्फटिक के समान निर्मल है, परम निरंजन - निर्विकार, परम ज्ञानी,परम शान्त, परमानन्द मयी है। इस तरह बार-बार अपने आत्मा को ध्यावे-तब परिणामों में थिरता होने पर स्वयं आत्मानुभव प्रगट होता है, यही मोक्षमार्ग है।
आत्मानुभव के साथ उसी समय अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद आता है। इसी अमृत रस का पान करते हुए आत्मानुभव में लीन साधु क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर अरिहन्त परमात्मा होकर अनन्त सुख को भोगने वाला, अनन्त चतुष्टय धारी हो जाता है,चारों घातिया कर्म क्षय हो जाते हैं।
जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है - यह आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, अनन्त दान, अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग, अनन्त वीर्य, अनन्त सुख का धारी परमात्म स्वरूप है। यह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होकर भी आत्मज्ञ और आत्मदर्शी है। यह ज्ञेय की अपेक्षा सर्वज्ञ सर्वदर्शी कहलाता है। शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारी होकर निरन्तर आत्म प्रतीति में वर्तमान है। सर्व कषाय भावों के अभाव से परम वीतराग, यथाख्यात चारित्र से विभूषित है। स्वयं के आनन्द को स्वयं को देता है। अनन्त दान करने वाला है। निरन्तर स्वात्मानन्द का भोग करना ही अनन्त लाभ है। स्वात्मानन्द का ही निरन्तर भोग है। अपने आत्मा का ही बार-बार उपभोग है। गुणों के भीतर परिणमन करते हुये कभी भी खेद नहीं पाता, यही अनन्त वीर्य है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मों से रहित होकर अनन्त सुख का समुद्र है।
शुद्ध दृष्टि ज्ञानी, अभेद नय से एक अखंड आत्मा को ध्याता है। स्वानुभव में लीन रहता है, यही आत्म समाधि-निश्चय रत्नत्रय की एकता है, यही मोक्ष मार्ग है।
शुद्ध दृष्टि, ज्ञान-विज्ञान का आलम्बन लेकर ऐसा निर्णय करता है कि मेरा कोई सम्बन्धन अन्य आत्माओं से है,नपुद्गल के कोई परमाणु या स्कंध से है, न धर्म, अधर्म, आकाश व काल द्रव्य से है, न मेरे में ज्ञानावरणादि आठ कर्म हैं, न शरीरादि नो कर्म है, न रागादि भाव कर्म है, न मेरे में इन्द्रियों के विषयों की अभिलाषा है, न मैं इन्द्रिय सुख को सुख जानता हूँ। मैं अतीन्द्रिय ज्ञान अतीन्द्रिय सुख को ही सच्चा सुख मानता हूँ सो वह मेरा सुख मेरे पास है। जैसे कोई प्रवीण पुरूष अपने भीतर होने वाले रोगों को पहिचान कर, उनसे अहित जानकर उन रोगों से पूर्णपने उदासीन हो जाता है। वैसे ही
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