________________
2017
श्री कमलबत्तीसी जी सम्यक्दृष्टि ज्ञानी जीव कर्मों के संयोग से होने वाले रागादि भाव व शरीरादि संयोगों को रोग व आत्मा के लिये हानिकारक जानकर उनसे पूर्ण वैरागी हो जाता है तथा इन रोगों को मिटाने के लिये सत्ता में बैठे कर्मों को नाश करने के लिये व नवीन रोग के कारण से बचने के लिये शुद्धात्मानुभूति ही एक परम औषधि है, जिसका वह सेवन करता है। निग्रंथ पद में रहकर दिन रात स्वानुभव का अभ्यास करता है। यदि तद्भव मोक्षगामी होता है तो क्षपक श्रेणी चढ़कर शीघ्र ही चार घातिया कर्मों का क्षय करके केवलज्ञानी हो जाता है।
आत्मा का आत्मा के भीतर, आत्मा के द्वारा ही पर के आलम्बन रहित रमण करना, निश्चय सम्यग्चारित्र है। निमित्त साधन अन्तरंग चारित्र का मोहकर्म का उपशम है। बाहरी साधन श्रावक का एक देश और साधु का सकल चारित्र है। इस तरह जो कोई निश्चित होकर आत्मा का सतत् अनुभव करता है, वही परमानन्द का पान करता हुआ कर्मों का संवर व उनकी निर्जरा करता हुआ मुक्ति को प्राप्त करता है।
शुद्ध दृष्टि, ज्ञान-विज्ञान के द्वारा ऐसा निर्णय कर समभाव में रहता है कि यह आत्मा सत्पदार्थ है। कभी न जन्मा है न कभी नाश होगा । स्वत: सिद्ध है,किसी ने इसको पैदा नहीं किया, न यह किसी को पैदा करता है। यह लोक अनादि काल से है। छह द्रव्यों के समूह को लोक कहते हैं। वे सब द्रव्य अनादि से अनन्त काल तक सदा ही सत्स्वरूप रहने वाले हैं। अनन्त जीव हैं, अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य हैं, असंख्यात कालाणु हैं, एक धर्मास्तिकाय है, एक अधर्मास्तिकाय है, एक आकाश अस्तिकाय है। आत्मा स्वरूप से सब समान परमात्म स्वरूप हैं तथापि हर एक आत्मा की सत्ता अपने में परिपूर्ण स्वतंत्र है। दूसरी आत्मा की सत्ता से अत्यन्त भिन्न है। आत्मा में न आठ कर्मों का बंधन है, न इसमें रागादि विकारी भाव हैं, न कोई स्थूल औदारिकादि शरीर हैं, आत्मा शुद्ध स्फटिक मणि के समान परम निर्मल है। ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणों का सागर है। यह आत्मा न किसी का उपादान कारण है न किसी का निमित्त कारण है।
संसार दशा में आत्मा, शरीर नाम कर्म के उदय से चंचल होकर मन, वचन, काय के द्वारा - योगों में परिणमन करता है तथा कषाय के उदय से शुभ-अशुभ उपयोग होता है। यह योग या उपयोग ही लौकिक कारणों में निमित्त है। जैसे - कुम्हार घड़ा पकाता है तो मिट्टी, घड़े का उपादान कारण
श्री कमलबत्तीसी जी है। कुम्हार का मन, वचन, काय योग और अशुद्ध उपयोग निमित्त कारण है।
शुद्धात्मा में न योग का कार्य है, न कोई शुभ-अशुभ उपयोग है। आत्मा स्वभाव से अकर्ता - अभोक्ता है।न पर भावों का कर्ता है,न पर भावों का भोक्ता है, आत्मा स्वभाव से अपने शुद्ध परिणति का कर्ता है व सहज शुद्ध सुख का भोक्ता है। यह आत्मा परम पदार्थ परमात्मा है, मैं ऐसा ही हूँ ऐसे दृढ़ निश्चय श्रद्धान सहित अपने ममल स्वभाव में रहना ही मुक्ति है।
आत्मा के श्रद्धान ज्ञान में बारम्बार रमण करना, बार-बार भावना भाना यही चारित्र है। जहाँ आत्मा आप से आप में स्थिर हो जाता है, वहाँ रत्नत्रय की एकता है यही मोक्षमार्ग है।
आत्मा का मनन निश्चिन्त होने पर ही होता है, जब किसी प्रकार की कोई चिन्ता न रहेगी, तब ही मन, वचन, काय की एकाग्रता होती है। संकल्प-विकल्प से रहित होकर ही आत्मा के शुब स्वभाव का मनन, ध्यान होता है। अतएव निग्रंथ पद धारण करके निराकुल हो जाना आवश्यक है। निर्वाण का उपाय एक शुद्धात्मानुभव ही है। जहाँ मनन के विकल्प या विचार सब बन्द हो जाते हैं। काय स्थिर होती है, वचन नहीं रहता, वहाँ ही स्वानुभव का प्रकाश होता है, इसी को निर्विकल्प समाधि कहते हैं। यही आत्म स्वभाव है यही यथार्थ में मोक्ष का मार्ग है। यही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यन्चारित्र की एकता है, यही राग प रहित वीतराग भाव है,यही परम समता है,यही एक आंत भाव है।यही संवर, निर्जरा तत्व है; अतएव ज्ञानी का अपने ज्ञान विज्ञान द्वारा ममल स्वभाव में स्थित रहना बाह्य के सब संयोग शान्त शून्य हो जाना मुक्ति है।
प्रत्येक पदार्थ सर्वत्र, सर्वकाल अपने ही स्व चतुष्टय - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में प्रतिष्ठित रहता है, पर चतुष्टय में नहीं। इस एक महा सिद्धान्त का निर्णय हो जाये तो तीन लोक, तीन कालवर्ती समस्त पदार्थों की यथार्थ प्रतीति हो जाये और स्वतंत्र ज्ञानानन्द स्वभाव सम्मुख होने की रूचि व स्थिरता हो जाये।
पदार्थ-द्रव्य रूप से नित्य है और पर्याय रूप से अनित्य है । ऐसी नित्यानित्यता तो पदार्थ का स्वरूप है, ज्ञान ऐसा जानता है। संयोग के कारण अनित्यता है ऐसा नहीं है, पर अपने कारण से ही अनित्यता है अर्थात्