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श्री कमलबत्तीसी जी अटल विश्वास कर और अपने स्वरूप में ज्ञान भाव में स्थित रह तो बता फिर कर्मादि कहाँ हैं?
कर्मादि की सत्ता मानना, उनसे भयभीत होना, यही अज्ञान बंधन का कारण है। एक समय की निर्मल पर्याय को जो सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र की पर्याय है, रत्नत्रय कहा है। उसके फल स्वरूप केवलज्ञान पर्याय प्रगट होती है, जो महारत्न है। ऐसे अनन्त गुण और उनकी अनन्त पर्यायों का धारक आत्म द्रव्य तो महारत्नों से भरा हुआ सागर है, जिसकी महिमा वचनातीत है। ऐसे निज स्वभाव का विश्वास और दृष्टि करो।
अकर्तृत्व जिसका स्वभाव है, वह यदि विकार का कर्ता हो तो साधकता ही नहीं हो सकती है। जो ममल स्वभाव शुद्धात्मा है, उसमें कर्म रागादि मल मानना ही मिथ्या श्रद्धान, मिथ्याज्ञान है।
आत्मा शाश्वत है, शुद्ध है,परम पारिणामिक भाव वाला ममल स्वभावी शुखात्मा है। उसकी ओर देखने से सम्यकदर्शन, ज्ञान होता है। जो आत्मसम्मुख होते हैं, वे विकार से विमुख हुये बिना नहीं रहते । मैं निर्विकार हूँ, शुद्ध चैतन्य, धुव तत्व शुद्धात्मा हूँ। यदि ऐसा कहें और विकार से विमुख न हों, तो वह मात्र धारणा है। राग से, कर्म से तथा शरीरादि पर से चैतन्य की एकता नहीं है, ऐसा भेदविज्ञान पूर्वक श्रद्धान कर । जिसने स्वभाव की दृष्टि की, उसके विभाव कर्मादि का अभाव होना ही चाहिए। यदि विभाव का अभाव न हुआ तो अभी स्वभाव दृष्टि ही नहीं हुई।
भगवान आत्मा पूर्णानन्द से परिपूर्ण स्वभाव है। इस स्वभाव के साधन से ही जीव की मुक्ति होती है।
प्रश्न-स्वभाव तो परिपूर्ण शुखममल स्वभावी है परन्तु पर्याय में तो अशवि और उसमें निमित्त पूर्व बद्ध कर्मोदय है। पूर्वकर्म बन्धोदय के क्षय होने पर पर्याय में शद्धि होने पर, पूर्ण परमानन्द दशा बढ़ेगी इसका उपाय बताइये?
समाधान - जब यह निर्णय कर लिया कि मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा ममल स्वभावी हूँ तथा एक-एक समय की पर्याय एवं जगत (सब जीव सब द्रव्यों) का त्रिकालवर्ती परिणमन, क्रमबद्ध निश्चित अटल है, इससे मेरा कोई सम्बंध नहीं है। ऐसा अनुभूति युत, श्रद्धान ज्ञान में आ गया तो अब अपने ममल स्वभाव में रहो। इसी से पर्याय में शुद्धि आयेगी,इसी से पूर्व बद्ध
श्री कमलबत्तीसी जी कर्म क्षय होंगे।
प्रश्न-इसमें ही गड़बड़ हो जाती है, जब वेदक सम्यक्त्व के कारण मोह के भाव-अप्रत्याख्यान कषाय के अशुभ भाव, राग का उदय चलता है तो भयभीतपना, कंपन होने लगता है, इसके लिये क्या करें?
समाधान- दृढता, निर्भयता से काम लो, अपने ज्ञान श्रद्धान पर अभय, अटल, अडोल, अकंप रहो। यह तो शूरवीर क्षत्रियों का मार्ग है । यहाँ बनियापना, ढील ढाल नहीं चलती, "गाढ़ो धरे ते पावे दीले न पावे" दृढता हिम्मत से अपना पुरूषार्थ करो। जब भेदज्ञान तत्व निर्णय हो गया, वस्तु स्वरूप जान लिया,ज्ञान श्रद्धान की शुद्धि हो गई तो अब क्या है। बेधड़क, अलमस्त रहो, जब जो होना है, वह निश्चित, अटल है, नहीं होना तो कोई कर नहीं सकता। जब एक-एक पर्याय, एक-एक परमाणु का, एमएक समय का परिणमन क्रमबद्ध-निश्चित अटल है। जैसा केवलज्ञानी के ज्ञान में झलका है, वैसा ही त्रिकालवर्ती परिणमन चल रहा है। जो होना था हो गया, जो होना है हो रहा है, जो होना होगा वह होगा, जब सब निश्चित है, सर्वज्ञ की सर्वज्ञता स्वीकार है। तुम स्वयं केवलज्ञान स्वभावी ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हो फिर कोई विकल्प भ्रम भय की बात ही नहीं है। इतनी अटलता, अभयता, अपने में रखना पडेगी, अपने ज्ञान बल को जाग्रत रखो, स्वयं स्वस्थ होश में सावधान रहो। प्रश्न - क्या इसके लिये और कोई उपाय है, यह कुछ न होवे ?
समाधान - हाँ,क्षायिक सम्यक्दर्शन और वीतरागी साधु होने पर फिर यह कुछ नहीं होंगे। प्रश्न-ऐसी तो पात्रता, परिस्थिति, इतना आत्मबल ही नहीं है?
समाधान - तो बस समता, शांति से ज्ञायक भाव में ज्ञान स्वभाव में डटे रहो । जब यह सब निर्णय हो गया, मुक्ति प्राप्त होना तय हो गया, तो इसी आनन्द उत्साह में धर्म की जय-जयकार मचाते, समता शांति से ज्ञायक भाव में डटे रहो। जब मुक्ति होना है, वह भी निश्चित है तो समता शांति से शुद्ध दृष्टि समभाव में ज्ञायक रहो। अपने ध्रुव तत्व शुद्धात्मा का स्मरण ध्यान रखो और ध्रुव धाम में डटे रहो। अब न कर्मों की परवाह करना है, न जगत की परवाह करना है। न किसी से कुछ लेना देना है। अपने में निस्पृह, आकिंचन वीतरागी बनो । अभय स्वस्थ मस्त रहो। सहजानन्द में परमशान्त समता में ज्ञायक रहते चले चलो। अब तो सब काम, कर्मों का क्षय, पर्याय की शुद्धि,
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