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श्री कमलबत्तीसी जी
सर्वोत्कृष्ट महिमा का भंडार चैतन्य देव निज शुद्धात्मा, अनादि अनन्त परम पारिणामिक भाव में स्थित है । उसका आश्रय ज्ञान श्रद्धान उसी में लीनता करने से सम्यक्दर्शन से लेकर मोक्ष तक की सर्व दशायें प्रगट होती हैं।
शुद्धात्म स्वरूप में दोष विकार, विषमता या कर्मादि हैं ही नहीं। जितने भी दोष विभावादि विषमतायें आती हैं, वे सब पर पर्याय से राग पूर्वक सम्बंध मानने से आती हैं। शुद्धात्म स्वरूप कर्मादि पर पर्याय के सम्बंध से सदा निर्लिप्त न्यारा परम पारिणामिक भाव स्वरूप है।
अपने को कर्मों का कर्ता मानना तथा कर्म फल में हेतु बनकर सुखी-दुःखी होना ही अज्ञान से मोहित होना है। जीव का जन्म कर्मों के अनुबंध से होता है। जैसे-जिस परिवार में जन्म लिया है, उस परिवार के लोगों से ऋणानुबंध है अर्थात् किसी का कर्ज चुकाना है और किसी से वसूल करना है। यह लेन-देन का व्यवहार अनेक जन्मों से चला आ रहा है, इसे बन्द किये बिना जन्म-मरण से छुटकारा नहीं मिल सकता। इसके लिये अपने परमात्म स्वरूप पूर्ण शुद्ध सिद्ध दशा का बोध जागे। उस पर दृढ़ अटल विश्वास हो और अपने पारिणामिक भाव में रहा जाये, किसी से भी कोई मोह, राग, द्वेष न हो, पर पर्याय का लक्ष्य-पक्ष न रहे। अपने में अटल-अचल ध्रुव स्वभाव में लीनता होने से सारे पूर्व बद्ध कर्म क्षय हो जाते हैं।
सामान्यत: शरीर और इन्द्रियों की क्रियाओं को ही कर्म माना जाता है एवं शरीर और इन्द्रियों की क्रियायें बंद होने पर कर्मों से छुटकारा मान लेते हैं परन्तु भाव के अनुसार ही कर्म की संज्ञा होती है। भाव बदलने पर कर्म की संज्ञा भी बदल जाती है। जैसे शरीरादि शुभ क्रिया रूप परिणमन दिखाई देता है। यदि कर्ता का भाव अशुभ है तो वहाँ अशुभ कर्म बंध हो जाता है।
शुभ भाव और शुभ क्रिया से, शुभ कर्म का बंध होता है। अशुभ भाव और अशुभ क्रिया से पाप कर्म का बंध होता है।
शबभाव और निष्क्रिय दशा से कर्म का बंध नहीं होता, पूर्व बद्ध कर्म निर्जरित क्षय हो जाते हैं। ____ मनुष्य जन्म, मनुष्य शरीर जीवन की परम संसिद्धि है। यदि हम स्वरूप साक्षात्कार, सम्यक्दर्शन की उपेक्षा करते हैं तो प्रकृति के नियमों के अनुसार हमें न चाहते हुये भी चारों गतियों में चक्कर लगाना पड़ेंगे, नाना प्रकार के दु:ख भोगना पड़ेंगे।
श्री कमलबत्तीसी जी इन्द्रियों से ऊपर मन है, मन से ऊपर बुद्धि है और बुद्धि से परे आत्मा है अत: आत्मा का लक्ष्य होना चाहिए। सम्यक्दर्शन (स्वरूप साक्षात्कार) आत्मा की दिव्य महिमा की अनुभूति है। जिसके होने पर सारे संसार के बंधन टूट जाते हैं। कर्म संयोग छूट जाते हैं,पूर्व बद्ध कर्म निर्जरित और क्षय हो जाते हैं तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है।
सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव ने जो कहा है. उसका श्रद्धान करो। भगवान कहते हैं प्रत्येक जीव आत्मा स्वभाव से शुद्धात्मा ममल स्वभावी है, उसका जो जीव अवलम्बन ले,श्रद्धान करे, उसे उस ध्रुव ममल स्वभाव में से शुद्धता प्रगट होती है। तीन काल और तीन लोक में शुद्ध निश्चय नय से मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा ममल स्वभावी ध्रुव तत्व हूँ। ज्ञानानन्द सच्चिदानन्द घन भगवान आत्मा हूँ. ऐसी द्रढ प्रतीति, श्रद्धा अनुभूति ही शुद्ध दृष्टि है। मैं ऐसा हूँ तथा सभी जीव भी भगवान स्वरूप हैं, परमात्म स्वरूप हैं। द्रव्य दृष्टि से सभी जीव ऐसे हैं, ऐसे आत्म स्वरूप का श्रद्धान अनुभव होना तथा पुद्गल द्रव्य भी शुद्ध परमाणु रूप है। यह जो दिखाई दे रहा है, यह सब अशुद्ध पर्याय का परिणमन है, जो असत् क्षण भंगुर नाशवान है, इसका नाम सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान है और इस द्रव्य दृष्टि के आधार से समभाव पूर्वक अपने स्वरूप में स्थिर रहना सम्यक्चारित्र है।
स्व या पर जब किसी द्रव्य, किसी गुण व किसी पर्याय में हेर फेर करने की बुद्धि न रही, तब वह सच्ची श्रद्धा और ज्ञान हुआ, तब ज्ञान, ज्ञान में ही जम गया, अर्थात् मात्र वीतरागी ज्ञाता भाव ही रह गया, ऐसे साधक की अल्प काल में मुक्ति होती है।
प्रभु ! तू स्वयं चिन्मय, परमात्म स्वरूप है। जिन स्वरूप आत्मा शुद्धात्मा है। वीतराग, अकषाय, ममल स्वभावी आत्मा है। परम पारिणामिक भाव वाला है, ऐसा श्रद्धान कर और अपने परम ज्ञान स्वभाव में रह तो यह सारे कर्म विला जाते हैं। तू स्वयं अनन्त शक्तियों से व्याप्त भगवान आत्मा, अचिन्त्य शक्तिमय और सामर्थ्यवान है, इसका भरोसा दृढ़ अटल श्रद्धान, विश्वास करे तो भव भ्रमण छूट जाये।
भगवान सर्वज्ञ देव जिनेन्द्र परमात्मा ऐसा कहते हैं कि आत्मा में शरीर, संसार, रागादि भाव, कर्म बंध है ही नहीं। आत्मा तो ममल स्वभावी, स्वयं जिनवर, तीर्थंकर सर्वज्ञ परमात्मा है। सारे कर्म मलादि से रहित शुद्ध चैतन्य है। सर्वप्रथम ऐसा निर्णय कर, आत्मा का अनुभव कर, ऐसा श्रद्धान, ज्ञान,