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श्री कमलबत्तीसी जी
जैसे चिर संचित ईंधन को वायु से उद्दीप्त आग तत्काल जला डालती है, वैसे ही ध्यान रूपी अग्नि अपरिमित कर्म ईंधन को क्षण भर में भस्म कर डालती है।
जैसे पूर्णमासी के पूर्ण चन्द्र के योग से समुद्र में ज्वार आता है, उसी प्रकार ममल स्वभावी, सिद्ध स्वरूपी आत्मा, पूर्ण चैतन्य चन्द्र को स्थिरता पूर्वक निहारने से अन्तर चेतना उछलती है, चारित्र उछलता है, सुख उछलता है, वीर्य उछलता है, उस दशा में अनन्त गुणों से भरपूर चैतन्य देव आश्चर्यकारी आनन्द तरंगों में डोलता है, इससे पूर्व बद्ध कर्म सब निर्जरित क्षय हो जाते हैं।
जब तक तत्व प्राप्ति - सम्यक्दर्शन- सम्यक्ज्ञान का दृढ़ निश्चय नहीं होता, तब तक अच्छे-अच्छे साधकों को अंतः करण में भी कुछ न कुछ दुविधा विद्यमान रहती है।
इसलिये सर्व तत्व ज्ञान का सिरमौर, मुकुट मणि, परम पारिणामिक भाव निज शुद्धात्म तत्व, ज्ञायक स्वभाव, वह स्वानुभूति का आधार है । सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान रूप समयसार है, उसमें स्थित होना ही सम्यक्चारित्र है । सम्यक्चारित्र की शुद्धि पूर्वक वृद्धि साधु पद है, यही मोक्ष मार्ग है, इसी से सारे कर्म क्षय होते हैं।
तत्व ज्ञान होने पर तत्काल अंतर में शरीरादि कर्मों से सम्बंध विच्छेद हो जाता है। कर्म का बंध शरीरादि कर्म संयोग से एकत्व होने पर ही होता है, इसलिये शरीरादि कर्मों से सम्बंध विच्छेद होने पर उसके किंचित् भी पापादि कर्म नहीं रहते।
ऐसे निज शुद्धात्म तत्व का आश्रय करने से ही अतीन्द्रिय आनन्द म स्वानुभूति होती है। यदि साधक का यह दृढ़ निश्चय हो जाये कि मुझे एक परमात्म पद के सिवाय कुछ नहीं चाहिये तो वह वर्तमान में ही मुक्त हो जाता है । समस्त आशाओं और इच्छाओं से रहित होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाना ही मुक्ति है; परन्तु यदि पर पर्याय पर दृष्टि रहेगी, पर वस्तु में सुख भोग और जीने की भी इच्छा रहेगी तो इच्छा कभी पूरी नहीं होगी और मृत्यु के भय से भी बचाव न होगा तथा कषाय रागादि भावों से भी छुटकारा नहीं होगा इसलिये मुक्त होने के लिये इच्छा रहित होना आवश्यक है।
इसी बात को आगे की गाथा में और स्पष्ट करते हैं
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श्री कमलबत्तीसी जी
गाथा - ३०
संसार सरनि नहु विस्ट, नहु विस्टं समल पर्जाव सभावं । न्यानं कमल सहावं, न्यानं विन्यान कमल अन्मोयं ॥
शब्दार्थ (संसार सरनि) संसार परिभ्रमण, चार गति पंच परावर्तन रूप संसार चक्र (नहु दिस्टं) मत देखो (समल पर्जाव) समल पर्याय, कर्मोदय जन्य विकारी परिणमन (नहु दिस्टं) मत देखो (सभावं) स्वभाव को, निज स्वरूप को देखो (न्यानं) ज्ञान मयी (कमल सहावं) कमल स्वभाव, ज्ञायक स्वभाव (न्यानं विन्यान) ज्ञान-विज्ञान, भेदविज्ञान पूर्वक (कमल) ज्ञायक स्वभाव आत्मा (अन्मोयं) आलम्बन लो, आश्रय करो, लीन रहो ।
विशेषार्थ हे कमल श्री ( आत्मा ) ! चार गति पंच परावर्तन रूप संसार के परिभ्रमण को मत देखो, निज आत्मा का ध्यान करो। यह रागादि रूप जो भी समल पर्याय (कर्मोदय जनित विकारी परिणमन) है, इसको भी मत देखो, अपने शुद्ध चिदूप निज स्वभाव का स्मरण रखो ।
निज शुद्धात्मा ज्ञान स्वभावी कमल के समान प्रफुल्लित निर्लिप्त निर्विकारी न्यारा मात्र ज्ञायक स्वभावी है। भेद विज्ञान पूर्वक इसी ज्ञान विज्ञान मयी ममल स्वभाव में लीन रहो, इसी से अपने परमात्म पद की प्राप्ति होगी, यही सम्यक् चारित्र है। भूल यह होती है कि हम परिस्थितियों की ओर तो देखते हैं, पर निज स्वरूप की ओर नहीं देखते। अपने सत्स्वरूप की ओर न देखने के कारण ही हम आने-जाने वाली परिस्थितियों से मिलकर सुखी - दुःखी, भयभीत होते हैं; वस्तुत: हमें अपने स्वरूप पर सदा दृष्टि रखना चाहिये।
वास्तव में प्रत्येक प्राणी स्वतंत्र, अपने स्वरूप से असंग ही है। शरीरादि पर में अपनत्व मान कर सुख की इच्छा से उनमें आबद्ध हो जाता है। मन में चाह पैदा होने लगती है। यह होना, यह नहीं होना और इसी से राग-द्वेष होने लगते हैं, इन भावों का होना ही संसार सरनि का बहना है।
साधक का सम्बन्ध नित्य-निरन्तर रहने वाले ध्रुव स्वभाव के साथ रहता है, प्रति क्षण परिवर्तन शील पर्याय के साथ नहीं, इसलिये उसकी स्थिति स्वाभाविक ही समता में रहती है। वास्तव में होता वही है, जो होने वाला है। जो नहीं होने वाला है, उसे चाहे या न चाहे, वह नहीं होगा, ऐसी समता का आना ही इन्दातीत स्थिति है।
अपने को कर्मों का कर्ता मान लेना तथा कर्म फल में हेतु बनकर