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श्री कमलबत्तीसी जी सुखी-दुःखी होना ही दर्शन मोहांध है। पाप-पुण्य हमें करने पड़ते हैं, इनसे हम कैसे छूट सकते हैं, इस प्रकार की धारणा बना लेना ही अज्ञान से मोहित होना है। जीव स्वरूप से अकर्ता तथा सुख-दुःख से रहित है, केवल अपनी मूर्खता के कारण वह कर्ता बन जाता है और कर्म फल के साथ संबंध जोड़कर सुखी-दु:खी होता है।
जिन पुरुषों ने अपने ज्ञान के द्वारा अज्ञान को नष्ट कर दिया है अर्थात् यह सब पर पर्याय, संसार-सरनि रूप भाव आने-जाने वाले, छूटने वाले हैं और स्वयं सत्स्वरूप शाश्वत रहने वाला है। ऐसा अनुभव करके असत् पर्याय से सर्वथा संबंध विच्छेद कर दिया है, उनका भेदविज्ञान द्वारा ज्ञान, विज्ञानघन होता हुआ केवलज्ञान स्वरूप प्रकाशित हो जाता है।
भव बंधन से मुक्ति का पथ पूर्ण रूप से ज्ञान, वैराग्य पर निर्भर है। पदार्थ और क्रिया रूप संसार से अपना संबंध मानने के कारण, मनुष्य मात्र में पदार्थ पाने और कर्म करने का राग रहता है कि मुझे कुछ न कुछ मिलता रहे और मैं कुछ न कुछ करता रहूँ। इसी को "पाने की कामना" और "करने का राग" कहते हैं। शरीर से जो क्रियायें होती हैं,वाणी से जो कथन होता है और मन में जो संकल्प-विकल्प होते हैं, यह सब कर्मोदय जन्य परिणमन है । जीव आत्मा इन सबसे भिन्न चैतन्य ज्योति ज्ञायक स्वभावी है। ऐसा तत्व ज्ञान, भेदविज्ञान होने पर तत्काल स्वत: सिद्ध परम शांति की अनुभूति हो जाती है, जिससे - १. जीने की इच्छा, २. मरने का भय, ३. पाने की कामना, ४. करने का राग, सर्वथा समाप्त हो जाता है।
राग-द्वेष को मिटाने के लिये यह विचार करना चाहिये कि अपने न चाहने पर भी अनुकूलता-प्रतिकूलता आती है, संयोग-वियोग होता है, क्योंकि अनुकूलता-प्रतिकूलता, संयोग-वियोग, हानि-लाभ, जीवन-मरण यह सब पूर्व कर्म उदयानुसार प्रारब्ध के फल स्वरूप आते-जाते होते रहते हैं. फिर इनके आने-जाने, होने में कुछ भी इच्छा, चाह क्यों करें और इन्हें अच्छाबुरा भी क्यों मानें? अपना आत्म स्वरूपतो इन सबसे पृथक् स्वतंत्र, शाश्वत, अविनाशी है। अपने में पर का कर्तृत्व, भोक्तृत्व है ही नहीं, यह निर्णय करना ही राग-द्वेष को मिटाना है, यही साधक का प्रमुख कर्तव्य है।
संसार, शरीर, पर पर्याय को नदेखकर अपने सत्स्वरूपममल स्वभाव को देखना, उसमें रत रहना ही सम्यक्चारित्र है वही मुक्ति मार्ग है।
श्री कमलबत्तीसी जी कर्म, करण और उपकरण (शरीर, इन्द्रिय, मन आदि कर्म और करण कहलाते हैं) कर्म करने में उपयोगी सामग्री उपकरण कहलाती है। ये तीनों ही उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं। संसार सरनि, समल पर्याय और परसंयोग, कर्मादि यह सब क्षणभंगुर, असत् और नाशवान हैं, इनकी ओर देखना और अपना मानना ही अज्ञान है।
साधक को इन तीनों से संबंध विच्छेद करना होता है। इनसे संबंध विच्छेद तभी होता है, जब साधक "अपने लिये कुछ नहीं करेगा","अपने लिये कुछ नहीं चाहेगा", और अपना कुछ नहीं मानेगा; कारण कि मेरा सत्स्वरूपशाश्वत, अविनाशी ज्ञान विज्ञान मयी ममल स्वभाव है और यह जो कुछ है, सब असत् नाशवंत है। इन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि कर्मोदय जन्य हैं इसलिये इनसे होने वाला ज्ञान, परिणमन प्रकृति जन्य है। शास्त्रों को पढ़ सुनकर, इन मन-बुद्धि के द्वारा जो पारमार्थिक ज्ञान होता है, वह ज्ञान भी एक प्रकार से प्रकृति जन्य है। परमात्म तत्व का ज्ञान, इस कर्मोदय जन्य ज्ञान की अपेक्षा अत्यन्त विलक्षण है : अतएव परमात्म तत्व निज शुद्धात्म स्वरूप को निज ज्ञान से ही जाना जा सकता है। अपनी ज्ञानानुभूति द्वारा अपने कमल स्वभाव ज्ञायक भाव में रहना, ज्ञानीपना है और ज्ञान-विज्ञान मयी ममल स्वभाव में लीन रहना सम्यक्चारित्र है, इसी से पूर्व कर्म बंधोदय क्षय होते हैं।
शरीरादि वस्तुयें जन्म से पहले भी हमारे साथ नहीं थीं और मरने के बाद भी नहीं रहेंगी तथा इस समय भी उनका प्रतिक्षण हमसे संबंध विच्छेद हो रहा है, इन मिली हुई वस्तुओं का सदुपयोग करने का ही अधिकार है, अपनी मानने का अधिकार नहीं है। इन्हें अपनी और अपने लिये मानना ही वास्तव में बंधन रूप अज्ञान है।
नाशवान वस्तुओं, संसार सरनि, समल पर्याय, कर्म संयोगादि को अपनी और अपने लिये न मानना ही ज्ञान-विज्ञान है। इससे ही आत्मा परम पवित्र होता है। इस ज्ञान-विज्ञान से जड़ के साथ माने हुये सम्बंध का सर्वथा अभाव हो जाता है। इस ज्ञान-विज्ञान से आत्मा, सच्चिदानन्द घन परमात्मा हो जाता है फिर नित्य निरन्तर निर्लिप्त, निर्विकारी रहता है। कृत-कृत्य पूर्ण आप्त, स्वयं सिद्ध परमात्मा हो जाता है।
कर्म बंधन से छूटने का वास्तविक उपाय-योग अर्थात् समता पूर्वक अपने स्वभाव में रहना है।