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श्री कमलबत्तीसी जी
मन में प्रसन्नता, चित्त की एकाग्रता, इन्द्रियों का वश में होना और आत्म साक्षात्कार की योग्यता प्राप्त हो जाती है ।
७. तप से रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होती है।
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८. स्वाध्याय से अपने इष्ट की प्राप्ति, परमात्मा के दर्शन होते हैं। ९. परमात्मा के प्रति समर्पण से -समाधि, निर्विकल्प दशा की प्राप्ति होती है।
(३) आसन - निश्चल ( हलन चलन रहित) सुख पूर्वक एकाग्र बैठने का नाम आसन है। पद्मासन, सुखासन आदि आसन की सिद्धि होने पर, शरीर में गर्मी सर्दी आदि द्वंदों का प्रभाव नहीं पड़ता।
इंद चित्त को चंचल बनाते हैं।
(४) प्राणायाम श्वास और प्रश्वास की गति का रुक जाना प्राणायाम है। इसके रेचक, पूरक, कुम्भक आदि भेद हैं।
विशेष- बाहर और भीतर के विषयों का त्याग कर देने से अपने आप होने वाला चौथा प्राणायाम है। इससे मन भी शान्त हो जाता है। प्राणों की गति भी रुक जाती है तथा श्वास आदि का पता ही नहीं चलता ।
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(५) प्रत्याहार - अपने विषयों के सम्बंध से रहित होने पर इन्द्रियों का जो चित्त के स्वरूप में तदाकार सा हो जाना है वह प्रत्याहार है।
जब साधन काल में साधक इन्द्रियों के विषयों का त्याग करके चित्त को अपने ध्येय में लगाता है, उस समय जो इन्द्रियों का विषयों की ओर न जाकर चित्त में विलीन सा हो जाना है, यह प्रत्याहार सिद्ध होने की पहिचान है।
यदि उस समय भी इन्द्रियां पहले के अभ्यास से इसके सामने बाह्य विषयों का चित्र उपस्थित करती रहें, तो समझना चाहिये कि प्रत्याहार नहीं है।
इन्द्रियों का सर्वथा वश में हो जाना ही प्रत्याहार है।
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, और प्रत्याहार-इन पांच बहिरंग साधनों की सही साधना होने पर धारणा, ध्यान, समाधि यह तीन अंतरंग साधन होते हैं, जिनकी पूर्णता होने पर उसका नाम संयम हो जाता है।
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(६) धारणा - बाहर या शरीर के भीतर कहीं भी किसी एक देश में चित्त को ठहराना धारणा है। नाभि चक्र, हृदय कमल आदि षट् कमल शरीर के भीतरी देश हैं तथा बाह्य किसी वस्तु, चिन्ह, आदि बाहर के देश हैं, इनमें से किसी एक देश में चित्त की वृत्ति को लगाने का नाम धारणा है।
(७) ध्यान- जहाँ चित्त को लगाया जाय, उसी में वृत्ति का एक तार चलना
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श्री कमलबत्तीसी जी
ध्यान है। जिस ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाय, उसी में चित्त एकाग्र हो जाना अर्थात् केवल ध्येय मात्र की एक ही तरह की वृत्ति का प्रवाह चलना, उसके बीच में किसी दूसरी वृत्ति का न उठना ध्यान है।
(८) समाधि- जब ध्यान में केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीति होती है और चित्त का निज स्वरूप शून्य सा हो जाता है, तब वही ध्यान ही समाधि सा हो जाता है।
ध्यान करते-करते जब चित्त ध्येयाकार में परिणत हो जाता है, उसके अपने स्वरूप का अभाव सा हो जाता है। उसकी ध्येय से भिन्न उपलब्धि नहीं होती। उस समय उस ध्यान का नाम ही समाधि हो जाता है, यही निर्वितर्क समाधि कहलाती है ।
विवेक, ज्ञान होने पर ही कैवल्य प्राप्त होता है, वह चाहे किसी भी निमित्त से किसी भी प्रकार हो, सम्यक्ज्ञान महत्वपूर्ण है।
जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है, निशंक, निर्भय, और आशा रहित है तथा जिसका मन वैराग्य से युक्त है वही ध्यान में सुनिश्चित भली भाँति स्थिर होता है।
चाह मात्र मन की निर्मात्री है।
मनुष्य मन से छूटना चाहता है, मन से छूटने की चाह ही मन को बनाये है क्योंकि सभी चाह मन को बनाती हैं। तुम सिर्फ देखते रहो, दृष्टा बनो, चुनाव मत करो, यह अच्छा है, यह बुरा है, यही राग है। जो मन को सक्रिय और जीवित रखता है।
चुनाव रहित सजगता में मन का निर्माण नहीं होता, मन के शान्त हो जाने का नाम ही ध्यान है, कर्ता के क्षीण हो जाने से कर्म क्षीण हो जाते हैं।
ध्यानी योगी अपनी आत्मा को शरीर तथा समस्त बाह्य संयोगों से भिन्न देखता है, शरीर मरता है इसलिये शरीर के साथ जुड़े तो भय रहेगा, मन बदलता है, मन के साथ जुड़े, तो जीवन में कभी थिरता नहीं होगी, मन और शरीर के पार जो छिपा है- साक्षी चैतन्य, उससे जुड़े रहो तो फिर सब शाश्वत है।
हे साधक ! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न से 'कुछ चितवन कर, इस प्रकार योग का निरोध करने से तू स्थिर हो जायेगा, तेरी आत्मा, आत्मरत हो जायेगी, यही परम ध्यान है।
मन