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श्री कमलबत्तीसी जी
ज्ञायक स्वभाव, कमल स्वभाव आत्मा का निर्णय करके मति श्रुत ज्ञान का उपयोग जो बाह्य में जाता है, उसे अन्तर में समेट लेना, बाहर जाते हुए उपयोग को कमल स्वभाव के आलम्बन द्वारा बारम्बार अन्तर में स्थिर करते रहना, यही सम्यक्चारित्र है, इसमें स्थिरता होना ही साधु पद है।
इसके लिये ज्ञान पूर्वक साधना करो, छह कमल से योग साधना की पद्धति है, इसका अभ्यास करना यह षट् कमल है।
षट् कमल साधना
१. गुप्त कमल - लिंग और गुदा के बीच स्थान पर छह पंखुड़ी का कमल बनाकर छह अर्क स्थापित करो कमलसी अर्क, चरनसी अर्क, करनसी अर्क, सुवनसी अर्क, हंससी अर्क, अवयास श्री अर्क; और इनका बारम्बार चिन्तन मनन करो, इसकी सिद्धि होने पर कई विशेषतायें होती हैं, इसी को मूलाधार चक्र कहते हैं, जिससे कुंडली जागरण होता है।
२. नाभिकमल साधक इस नाभि कमल पर भी छह पंखुड़ी बनाकर दिप्तिसी अर्क, सुदिप्तिसी अर्क, अभयसी अर्क, सुर्कसी अर्क, अर्थसी अर्क, विन्दसी अर्क का जागरण करता है।
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३. हृदय कमल - इस कमल की आठ पंखुड़ियां होती हैं, इन पर क्रमश:नन्दसी अर्क, आनन्दसी अर्क, समयसी अर्क, सहयारसी अर्क, हियरमनसी अर्क, अलखसी अर्क, अगमसी अर्क, रमनसी अर्क। इनका अभ्यास करने से हृदय कमल खिल जाता है।
४. कंठकमल चार पंखुड़ी का कमल होता है जिसमें सुई रंजसी अर्क, सुई उवनसी अर्क, षिपनसी अर्क, ममलसी अर्क की साधना की जाती है।
५. मुख कमल इसकी छह पंखुड़ियां होती हैं, उन पर विक्तसी अर्क, सुई समयसी अर्क, सुनंदसी अर्क, हिययारसी अर्क, जानसी अर्क, जिनसी अर्क की साधना, अभ्यास किया जाता है।
६. विंद कमल इसकी छह पंखुड़ी होती हैं, जिनमें लखनसी अर्क, लीनसी अर्क, भद्रसी अर्क, मै उवनसी अर्क, सहनसी अर्क, पै उवनसी अर्क की साधना की जाती है। इसका विशद् विवेचन ममल पाहुड़ जी ग्रंथ में है । इन षट् कमलों के माध्यम से मन, वचन, काय को एकाग्र कर ध्यान समाधि लगाना, अपने आत्म प्रदेशों को एक कमल में केन्द्रित करना, इससे शून्य समाधि की स्थिति भी बनती है तथा पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ, रुपातीत
श्री कमलबत्तीसी जी
ध्यान की साधना अभ्यास करो इससे मन शान्त होता है, उपयोग स्थिर शून्य होता है, आत्मानुभूति की स्थिति बनती है। यही धर्म, शुक्ल ध्यान हो जाता है, जिससे सारे कर्म क्षय हो जाते हैं, केवलज्ञान प्रगट होता है। योग की साधना निम्न प्रकार होती है -
योग के अंगों का अनुष्ठान करने से अशुद्धि का नाश होने पर ज्ञान का प्रकाश, विवेक का जागरण जीवन पर्यन्त के लिये हो जाता है।
योग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ।
(१) यम- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह; यही यम-जाति, देश, काल, और निमित्त की सीमा से रहित सार्वभौम होने पर महाव्रत हो जाते हैं।
(२) नियम- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और परमात्मा के प्रति समर्पण - यह पांच नियम हैं।
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इन यम • नियम में बाधा पहुंचाने वाले वितर्क होते हैं, जो साधक को विचलित करते हैं, उस समय सावधान रहना चाहिये।
वितर्क - कृत, कारित, अनुमोदना पूर्वक हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि अवगुणों द्वारा, लोभ, क्रोध, मोह, काम (माया) के भाव, मन्द लहर, तीव्र उद्वेग, तीव्रतर तूफान के रूप में उपस्थित होते हैं, इनको दूर करने के लिये त्याग, वैराग्य, अनित्यादि भावना को दृढ़ करते रहना चाहिये, इन यम, नियम की सही स्थिति होने पर साधक को विशेष उपलब्धि होती है
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१. अहिंसा की दृढ़ स्थिति हो जाने पर इसके निकटवर्ती हिंसक जीव भी बैर भाव से रहित हो जाते हैं।
२. सत्य की दृढ़ स्थिति होने पर
होता है।
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जिसको जो कुछ कह दे वह सत्य
३. अचौर्य की दृढ़ स्थिति होने पर धन रत्न आदि उसके चरणों में लोटते हैं।
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४. ब्रह्मचर्य की दृढ़ स्थिति होने पर अपूर्व शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है,
उसके मन-बुद्धि- इन्द्रिय, शरीर में वह अजेय हो जाता है। ५. अपरिग्रह की दृढ़ स्थिति होने पर - अर्थात् मूर्च्छा भाव खत्म होने परपूर्व जन्म, वर्तमान तथा भविष्य का ज्ञान प्रगट हो जाता है।
६. शौच का अन्तरंग, बहिरंग पालन करने से अन्तः करण की शुद्धि,
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