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श्री कमलबत्तीसी जी
उसका नाम ज्ञानी है।
(५) शुद्ध अध्यात्म (ज्ञान मार्ग) में निश्चय नय की मुख्यता रहती है। शुद्ध निश्चय नय के अवलम्बन द्वारा ही चला जाता है। व्यवहार नय गौण रहता है । वह सहकारी रूप में साथ-साथ चलता है। जब तक संसार में संयोगी दशा है, तब तक बराबर दोनों के समन्वय पूर्वक ही चला जाता। सही समझ का नाम मुक्ति है, इसलिये सब भ्रम मिटाकर यथार्थ निर्णय करो।
प्रश्न- फिर इसमें लोगों को यह कहने में न आयेगा कि मात्र निश्चय नय आत्मा शुद्धात्मा की ही चर्चा करते हैं, पाप-परिग्रह में लगे हैं, कोई व्रत-संयम नहीं है, ऐसी चर्चा और ऐसे लोगों से क्या मतलब ? समाधान- यहाँ एक सूत्र याद रखना "निज हेर बैठो, नहीं तो रार करो" अपने को देखो स्वयं कैसे क्या हैं; क्योंकि जैसे स्वयं हैं, वैसा ही अपना होना है, पर से कोई अपेक्षा ही नहीं है। लोग पर्याय दृष्टि से देखते हैं और उन्हें जैसा दिखता है, वैसा कहते हैं। इसमें डरने और बुरा मानने की क्या बात है। हाँ, यदि हम निश्चय नय की बात कर रहे हैं और जीवन उससे शून्य है, कोई श्रद्धान, ज्ञान नहीं है, आत्म कल्याण की भावना नहीं है, धर्म के नाम पर धंधा कर रहे हैं, अपनी आजीविका चला रहे हैं, संसारी कामनावासना की पूर्ति कर रहे हैं तो वह स्वयं के लिये भी दुर्गति का कारण है और इससे धर्म का घात होता है; परन्तु यदि इस शुद्ध नय की चर्चा करने, सुनने से, हमारी पर द्रव्य से भिन्नता, पर द्रव्य का अकर्तापना, रागादि भावों में हेय बुद्धि और अन्तर की चैतन्य ज्योति, परमात्म शक्ति की जाग्रति हो रही है, अनुभूति में आ रही है, उसके प्रति ज्ञान, श्रद्धान, स्वरूपाचरण चारित्र की जितनी विशेषता, सुधार होगा, यही सच्चा सुधार है और इससे पर्याय में शुद्धि आती है, व्यवहार में भी उस रूप परिणमन होने लगता है।
जो आत्म श्रद्धान ज्ञान को यथार्थ किये बिना, त्याग तप, व्रत आदि करते हैं, जिन शासन में आत्म भान बिना, बाह्य त्याग आदि को अन्तर दाह कहा है।
हमें पर को नहीं देखना, स्वयं को देखना है और अपनी पात्रतानुसार आगे बढ़ना है। ज्ञान स्वभाव की अनुमोदना करने, आलम्बन लेने, उसमें लीन रहने से ही सारे विभाव परिणाम और कर्मबंध गलते, विलाते हैं, क्षय होते हैं। जिनेन्द्र के वचनों को स्वीकार करते हुये हम अपना आत्मबल पुरुषार्थ
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श्री कमलबत्तीसी जी जाग्रत करें। ज्ञानोपयोग और ज्ञान भाव में अर्थात् हमेशा जाग्रत होश में रहने से यह सब पर्यायें और कर्मादि गलते-विलाते हैं।
प्रश्न- ज्ञानोपयोग के साथ और क्या करें, जिससे यह कर्म जल्दी क्षय हो जायें ?
इसके समाधान में श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य महाराज आगे गाथा कहते हैं -
गाथा - २९
कमलं कमल सहावं, षट् कमलं तिअर्थ ममल आनंदं । दर्सन न्यान सरूवं, चरनं अन्मोय कम्म संविपनं ॥
शब्दार्थ (कमलं) कमल श्री आत्मा (कमल सहावं) कमल स्वभावी, ज्ञायक स्वभावी, ज्ञातादृष्टा, साक्षी स्वभाव है (षट् कमलं) छह कमल के माध्यम से योग, ध्यान साधना करो (तिअर्थ ) रत्नत्रय, द्रव्य गुण पर्याय, उत्पाद व्यय ध्रौव्य (ममल) ममल स्वभाव (आनंद) आनन्द में रहो (दर्सन) सम्यक्दर्शन (न्यान) सम्यक्ज्ञान (सरूवं) स्वरूपी (चरनं) सम्यक्चारित्र (अन्मोय) आलम्बन लो, लीन रहो (कम्म संषिपनं) संपूर्ण कर्म निर्जरित क्षय हो जायेंगे।
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विशेषार्थ हे कमल श्री ! आत्मा, कमल स्वभाव (ज्ञायक स्वभाव) है। जैसे - कमल पानी और कीचड़ में रहता हुआ भी कीचड़ पानी से निर्लिप्त न्यारा है, उसी प्रकार निज शुद्धात्मा, शरीरादि कर्मों से भिन्न निर्लिप्त, निर्विकारी न्यारा है। ऐसे रत्नत्रयमयी निज शुद्धात्मा का षट्कमल योग साधना पद्धति से ध्यान करो और ममल स्वभाव के आनन्द में आनन्दित रहो । सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान स्वरूपी शुद्धात्मा समयसार है । अब सम्यक्चारित्र का अवलम्बन लो, अपने समयसार स्वरूप शुद्धात्मा में लीन रहो, साधु पद धारण कर रत्नत्रयमयी शुद्ध भाव में लीन रहो, इससे सारे कर्म क्षय होंगे, और परमानन्दमयी परम पद परमात्म स्वरूप प्रगट हो जायेगा ।
आत्मा में सहज भाव से दर्शन, ज्ञान, चारित्र, आनन्द इत्यादि अनन्त गुण विद्यमान हैं। पर से भिन्न ज्ञायक स्वभाव का निर्णय करके बारम्बार भेदज्ञान का अभ्यास करते-करते मति श्रुत के (मन बुद्धि के ) विकल्प टूट जाते हैं, उपयोग गहराई में चला जाता है, तदनुसार गहराई में भगवान आत्मा के दर्शन होते हैं।