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श्री कमलबत्तीसी जी से भिन्न पर भावों से भिन्न जानना-पहिचानना, उसका अभ्यास करना ही मुक्ति मार्ग है। यही जिन वचन, जिनेन्द्र परमात्मा की देशना है।
समल पर्याय के चलते हुये ममल स्वभाव की साधना करने वाला ज्ञानी शूरवीर है।
सर्वोत्कृष्ट महिमा का भंडार चैतन्य देव, अनादि अनन्त परम पारिणामिक भाव में स्थित है, यह पंचम भाव पवित्र है, महिमावंत है, इसका आश्रय करने से शुद्धि के प्रारम्भ से लेकर पूर्णता प्रगट होती है।
जो मलिन हो अथवा जो अंशत: निर्मल हो अथवा जो अधूरा हो अथवा जो शुद्ध एवं पूर्ण होने पर भी सापेक्ष हो, अध्रुव हो, और त्रैकालिक परिपूर्ण सामर्थवान न हो, उसके आश्रय से शुद्धता प्रगट नहीं होती: इसलिए औदयिक भाव, क्षायोपशमिक भाव, औपशमिक भाव, अवलम्बन के योग्य नहीं हैं।
जो ममल है, पूरा निर्मल है, परिपूर्ण है, परम निरपेक्ष है, ध्रुव है और त्रैकालिक परिपूर्ण सामर्थ्यवान है, ऐसे अभेद एक परम पारिणामिक भाव का ही आश्रय करने योग्य है, इसी की शरण लेने योग्य है। इसी अपने ध्रुव ममल स्वभाव से सम्यक्दर्शन से लेकर मोक्ष तक की सर्व दशायें प्राप्त होती हैं: इसलिये द्रव्य दृष्टि करके अखंड एक ज्ञायक वस्तु निज शुद्धात्म स्वरूप को लक्ष्य में लेकर उसका अवलम्बन करो। वही वस्तु के अखंड एक परम पारिणामिक भाव का आश्रय है।
आत्मा अनन्त गुणमय है परन्तु द्रव्य दृष्टि गुणों के भेदों को ग्रहण नहीं करती। वह तो एक अखंड त्रैकालिक ध्रुव स्वभाव को अभेद रूप से ग्रहण करती है, यह पंचम भाव पावन है, पूज्यनीय है। इसके आश्रय से सम्यक्दर्शन प्रगट होता है, सच्चा मुनिपना आता है, सुख और शांति आती है, वीतरागता होती है, पंचम गति की प्राप्ति होती है।
हे शुद्धात्मा! तू मुक्ति स्वरूप है, तुझे पहिचानने से पाँच प्रकार के परावर्तनों से छुटकारा होता है इसलिये तू सम्पूर्ण मुक्ति का दाता है, तुझ पर निरन्तर दृष्टि रखने से तेरी शरण में आने से जन्म-मरण मिटते हैं, यह जिन वचन है।
जीव अपनी लगन से शायक परिणति को प्राप्त करता है। मैं शायक हूँ, मैं विभाव-भाव से भिन्न हूँशरीरादि कर्मोदय से भिन्न हूँ, किसी भी पर्याय में अटकने वाला मैं नहीं हूँ। मैं अगाध गुणों से भरा हूँ, मैं ध्रुव हूँ, मैं शुद्ध हूँ, मैं परम पारिणामिक भाव हूँ, इस प्रकार की तरंगें ज्ञानी
श्री कमलबत्तीसी जी साधक को चलती हैं। इन्हीं विचारों से पूर्व कर्म बन्धोदय निर्जरित क्षय होते हैं। ममल स्वभाव में लीन होने पर स्वयं अरिहन्त सिद्ध परमात्मा हो जाता है।
शुद्धात्मा को जाने बिना, भले ही क्रियाओं के ढेर लगा दो परन्तु उससे आत्मा नहीं जाना जा सकता, न मुक्ति होती। ज्ञान से ही आत्मा जाना जाता है और ज्ञान से ही मुक्ति होती है।
प्रश्न-मात्र ज्ञान करने से क्या होता है,जब तक तदरूप आचरण न हो, तब तक कर्म भी क्षय नहीं होते इसलियेशान के साथ संयम तप करना भी आवश्यक या नहीं?
समाधान-जीवों को ज्ञान और क्रिया की खबर नहीं है । मैं ज्ञान तथा क्रिया दोनों करता हूँ, कर सकता हूँ, ऐसे भ्रम में उलझे रहते हैं ! बाह्य ज्ञान को, भंग भेद के प्रश्नोत्तरों को, धारणा ज्ञान को वे ज्ञान मानते हैं और पर द्रव्य के ग्रहण त्याग को, शरीरादि की क्रिया को,शुभाशुभ भाव को वे क्रिया मानते हैं। मुझे इतना आता है, मैं ऐसी कठिन क्रियायें करता हूँ , इस प्रकार के मिथ्या मद में संतोषित रहते हैं।
निज स्वरूप की अनुभूति के बिना, ज्ञान होता नहीं है तथा निज स्वभाव में रहना, निज स्वरूप में परिणमित होना, ज्ञान आनन्द आदि दशा में रहना, अपनी सुरत रखना, स्वभाव में लीन रहना, यह आत्मा की क्रिया-पुरूषार्थ व संयम-तप है। पौद्गलिक क्रिया आत्मा कहाँ कर सकता है ? जड़ के कार्य रूप तो जड़ ही परिणमित होता है। आत्मा से जड के कार्य कभी भी नहीं होते। शरीरादि के कार्य मेरे कार्य नहीं हैं और विभाव कार्य भी स्वरूप परिणति नहीं है । मैं तो ज्ञायक ध्रुव ममल स्वभावी हूँ। ऐसी साधक की परिणति होती है, इसी से कर्म क्षय होते हैं। इस प्रकार ज्ञान की अन्तरंग साधना चलती है। पर्याय की पात्रतानुसार तद्रूप बाह्य आचरण संयम-तप आदि भी होते हैं परन्तु ज्ञानी का लक्ष्य उस ओर नहीं होता। वह तो अपना पुरूषार्थ अपने ज्ञान, ध्यान, स्वभाव साधना का करता है, यही यथार्थ मुक्तिमार्ग है।
प्रश्न- यह कर्मोदय जन्य भाव, निमित्त संयोग तो बाधक बनते हैं, अपने स्वभाव की साधना स्मरण-ध्यान-शान करते हैं तो यह कर्मोदय जन्य भाव स्थिर ही नहीं रहने देते? भयभीत भ्रमित करते हैं, इसके लिये क्या करें?
इसके समाधान में आचार्य श्री जिन तारण स्वामी आगे गाथा कहते हैं