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श्री कमलबत्तीसी जी हो गया, ज्ञायक प्रभु हो गये। कैसी परम सुख शांति में रह रहे हो। इसे स्वीकार कर दृष्टि की शुद्धि कर सम्यक् चारित्र में प्रवेश करो और परमानन्द में रहो। __ अब कर्मोदय शरीरादि संयोग को कोई महत्व मत दो, इनकी सत्ता मत मानों। यह सब पर्यायी परिणमन तो त्रिकालवर्ती क्रमबद्ध, निश्चित, अटल है तथा सब क्षणभंगुर,नाशवान है। कब कैसा क्या होना है? यह तो केवलज्ञानी ही जानते हैं तुम इस तरफ का लक्ष्य खत्म करो, दृष्टि हटाओ। अपने सर्वज्ञ स्वरूप, परम ब्रह्म परमात्मा-सच्चिदानन्द घन, ब्रह्म स्वरूप को देखो, इसी में लीन रहो यही इष्ट प्रयोजनीय है और इसी के आश्रय से यह सब कर्म, कषाय, पर्यायें, विलायेंगी, निर्जरित-क्षय होंगी। अपने में अटल, अभय, स्वस्थ-मस्त रहना ही कर्मों को जीतना है।
यही जिनेन्द्र परमात्मा के वचन हैं जिनवाणी में कहा है, इसे स्वीकार
यही बात आगे गाथा में कहते हैं -
गाथा-२६ जिन वयन सुख सुद्ध, अन्मोयं ममल सुख सहकार । ममलं ममल सरूवं, जं रयनं रयन सरूव संमिलियं ॥
शब्दार्थ - (जिन वयन) जिन वचन, जिनेन्द्र परमात्मा की वाणी जिनवाणी (सुद्ध) शुद्ध है, सत्य है, धुव है, प्रमाण है (सुद्ध) शुद्ध करने वाली है (अन्मोयं) आलम्बन लो, आश्रय लो, अनुमोदना करो (ममल) ममल स्वभाव (सुद्ध सहकार) निश्चय से इसी का सहकार करो (ममलं) समस्त कर्म मलादि से रहित (ममल सरूवं) ममल स्वरूप शुद्धात्मा है (ज) जब, जो जहाँ (रयन) रत्न के समान, (रयन सरूव) रत्नत्रय स्वरूप, सिद्ध स्वरूप (संमिलिय) मिलान हो जायेगा, मिल जायेगा, प्रगट हो जायेगा।
विशेषार्थ - निज शुद्धात्म स्वरूप में लीन रहना सम्यकचारित्र, मुक्ति मार्ग आनन्द-परमानन्द दशा है। जिनेन्द्र परमात्मा के वचन सत्य हैं, ध्रुव हैं, प्रमाण हैं। इनको स्वीकार करने से स्वयं शुद्ध-सिद्ध परमात्मा होते हैं। जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि हे भव्यो ! अपने शुद्ध चैतन्य ममल स्वभाव का आलम्बन लो, इसी का सत्य श्रद्धान ज्ञान कर इसी में लीन रहो, यही मुक्ति मार्ग है। यह अमृतमयी शुद्ध स्वभाव को स्वीकार करो। अब पर पर्याय, कर्म मलादि की
श्री कमलबत्तीसी जी ओर मत देखो। कर्म मलों से रहित अपना यह ममलह ममल स्वरूप है अर्थात् आत्मा अनाद्यनिधन शुद्ध-सिद्ध परमात्मा के समान है। इसी के ध्यान में लीन रहो, इससे रत्न के समान रत्नत्रयमयी स्वयं का सिद्ध स्वरूप मिल जायेगा, अर्थात् प्रगट हो जायेगा स्वयं सिद्ध परमात्मा हो जाओगे।
सिद्धान्त- (१) राग द्वेष से बंध होता है। (२) बंध का क्षय, राग द्वेष के अभाव होने से मुक्ति होती है। इस जिनेन्द्र कथित सिद्धान्त की प्रतीति हो तो राग-द्वेष छोड़ो, यदि सर्व प्रकार से राग-द्वेष छूट जायें तो आत्मा का सर्व प्रकार से मोक्ष हो जाता है।
सर्व इन्द्रियों का संयम कर, सर्व पर द्रव्य से निज स्वरूप को भिन्न कर, योग को अचल कर, उपयोग से उपयोग की एकता करने से केवलज्ञान होता है।
सर्व जीवों के प्रति, सभी भावों के प्रति, अखंड एक रस वीतराग दशा रखना ही सर्व ज्ञान का फल है। आत्माशुद्ध चैतन्य जन्म जरा-मरण से रहित असंग स्वरूप है। ममल स्वभावी शुद्ध सिद्ध परमात्मा है इसमें सर्वज्ञान समा जाता है, इसकी प्रतीति में सर्व सम्यक्दर्शन समा जाता है। आत्मा की असंग स्वरूप से जो स्वभाव दशा का होना है, वह सम्यक्चारित्र है, उत्कृष्ट संयम और वीतराग दशा है, जिसकी सम्पूर्णता का फल-सर्व दु:ख क्षय-मुक्ति है।
द्वादशांग का सार, निज शुद्धात्म स्वरूप में दृष्टि अभेद कर, तादात्म्य कर निर्विकल्प, सहज सम भाव में रहो। देह, मन, वाणी, कर्म, औदयिकादिक्षणिक भावों से भी पार सूक्ष्म, अति सूक्ष्म सामान्य द्रव्य स्वभाव परम पारिणामिक भाव ममल स्वभाव में जमे रहो,बस यही सिद्धि मुक्ति परमानन्द दशा है।
परिणमन स्वभाव के समय भी अपरिणामी भी साथ ही साथ है। अपरिणामी स्वभाव को नित्य पकड़े रहो, यहाँ जमे रहो। इसके बिना, निस्तार नहीं है। परिणमन में से अस्तित्वपने की श्रद्धा हटाकर, त्रिकाली ज्ञान आनन्द आदि अनन्त गुणों के देहाकार असंख्यात प्रदेशी निजपने की श्रद्धा की पर्याय को एकाकार व्यापक करते ही नित्यपने का निज अस्तित्व का प्रति समय अनुभव होता है।
शुभाशुभ भाव से भिन्न ज्ञायक का, ज्ञायक रूप से अभ्यास करके ज्ञायक की प्रतीति दृढ करना, ज्ञायक को गहराई से पकड़ लेना, यही सादि अनन्त सुख प्राप्त करने का उपाय है। ऐसे ज्ञायक आत्मा को सबसे भिन्न, पर द्रव्य