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श्री कमलबत्तीसी जी होने से अपने ज्ञानानन्द स्वभाव में न रहकर, ऐसी दशा में रह रहा है।
प्रश्न-इससे छूटने का उपाय क्या है?
समाधान- सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की शुद्धि होने पर, परमानन्द में हो सकता है। सम्यक्दर्शन होने पर-पर से एकत्व छूटता है। सम्यक्ज्ञान होने पर-पर से अपनत्व कर्तृत्व छूटता है। सम्यक्चारित्र होने पर चाह और लगाव छूटता है। इससे आत्मा-अपने ज्ञानानन्द स्वभाव में रहता हुआ पूर्ण शुद्ध, मुक्त परम ब्रह्म परमात्मा हो जाता है, जो हमेशा परमानन्द में रहता है।
प्रश्न- सम्यवर्शन, ज्ञान, चारित्र की शुद्धि का उपाय क्या है?
समाधान-भेदज्ञान पूर्वक अपने स्वरूप की अनभूति होने पर बद्धि पूर्वक यह स्वीकार करना कि मुझे आत्मानुभूति सम्यकदर्शन हो गया। मैं सिद्ध के समान-ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ, यह सम्यकदर्शन की शुद्धि है।
सम्यकदर्शन की शुद्धि, ऐसा निर्णय स्वीकार होने के बाद ज्ञान की शुद्धि करना, सामने जो कर्मोदय संयोग पुदगल आदि के सम्बंध में यह क्या है ? कैसे हैं ? कहाँ से क्या होता है ? आदि संशय विभ्रम विमोह से रहित वस्तु स्वरूप, स्व-पर का यथार्थ ज्ञान होना कि मैं धुव तत्व शुद्धात्मा हूँ तथा यह एक-एक समय की पर्याय और जगत का (समस्त जीव द्रव्यों का) त्रिकालवर्ती परिणमन क्रमबद्ध, निश्चित, अटल है, इससे मेरा कोई संबन्ध नहीं है । ऐसा अनुभूति युत निर्णय होना सम्यकज्ञान की शुद्धि है।
इसके बाद दर्शन उपयोग, दृष्टि की शुद्धि करना । चक्षु-अचक्षु दर्शन द्वारा जो शरीरादि पौदगलिक जगत दिखता है, अन्तर में भाव-विभाव आदि मन चलता है, इनके संबंध में दृष्टि शुद्ध होना चाहिए। द्रव्य दृष्टि होना कि मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा, शुद्ध प्रदेशी सिद्ध के समान परमात्मा हैं। इसी प्रकार छहों काय के अनन्त जीव भी सिद्ध के समान शुद्धात्मा-परमात्मा हैं। किसी के प्रति कोई मोह, राग, द्वेष न होना, समभाव रहना तथा यह शरीरादि अचेतन पदार्थ सब शुद्ध परमाणु है, जो स्कन्ध रूप, अशुद्ध पर्याय रूप परिणमन कर रहे हैं तथा सूक्ष्म कर्म रूप, पुदगल कर्म वर्गणायें चल रही हैं। यह सब असत् अनत, क्षण भंगुर, नाशवान हैं। यह सब परिणमन भ्रम और भांति है। इसका कोई अस्तित्व नहीं है । मूल शुद्ध पुदगल परमाणु हैं। इस प्रकार दृष्टि में इनका महत्व, आकर्षण, मान्यता, भ्रम, भांति, मिट जाना, कुछ भी अच्छा-बुरा न लगना, यह चारित्र की शुद्धि, स्वरूप रमणता रूप वीतराग दशा, परमानन्द है।
श्री कमलबत्तीसी जी कमलश्री हे आत्मन् ! अपनी प्रभु सत्ता जगाओ। अच्छे उत्साह उमंग में स्वयं निर्विकल्प, निजानन्द में रहो। अब यह पर पर्याय को देखना, महत्व देना बन्द करो, अपने ध्रुव तत्व शुद्धात्मा को देखो, परमात्म स्वरूप में लीन रहो। अब किससे क्या मतलब है, है क्या? सबधूल का ढेर, पुद्गल परमाणुओं का परिणमन है, जो सब असत् क्षणभंगुर, नाशवान, अपने क्रम से अपने में चलता,गलता-विलाता-क्षय होता जा रहा है।
जब तक तुम्हारी दृष्टि में इनका मूल्य, महत्व रहेगा, राग भाव काम करेगा, तब तक यही दशा रहेगी। ज्ञान, श्रद्धान, सब कर लिया। अनुभव प्रमाण, अनुभूति युत सब भेदज्ञान, तत्व निर्णय, वस्तु स्वरूप जान लिया। ज्ञानी, ज्ञायक हो गये और जो कुछ है ही नहीं. मात्र हवा लहरें हैं. उन कर्मादि को महत्व दे रहे हो, अस्तित्व मान रहे हो और अपना इष्ट, परम इष्ट, परमात्मस्वरूप सत्ता शक्ति का प्रभत्व.ज्ञानानन्द स्वभाव का स्वयं के परिपूर्ण, निष्काम-निर्विकल्प-निजानन्द-धुव धाम मुक्ति श्री, सिद्धि की सम्पत्ति का कोई बहुमान, स्वाभिमान नहीं है। अपने अनन्त चतुष्टय, सर्वज्ञ स्वभाव, रत्नत्रय का कोई मूल्य महत्व नहीं है । परमानन्दमयी परमात्म पद की सत्ता का कोई गौरव नहीं बताते।
प्रभु ! अब यह सब देखना बन्द करो, अपनी निज सत्ता शक्ति देखो, इस जड पुदगल शरीरादि कर्मों का क्या महत्व मल्य करते हो. यह माया में क्यों चकराते हो, जो छल धोखा भ्रम मात्र है। अपने परमात्म सत्ता का सर्वज्ञ स्वरूप का बहुमान स्वाभिमान जगाओ, इसी आनन्द उत्साह में रहो। मुक्ति श्री के शाश्वत अतीन्द्रिय सुख आनन्द-अमृत रस का पान करो। अब तो अपनी सत्ता-शक्ति जागृत हो गई और यह पंच ज्ञान, पंच परमेष्ठी पददश धर्म, रत्नत्रय, अनन्त चतुष्टय, सर्वज्ञ स्वभाव आदि अरहंत पद प्रगट होने वाला है। सिद्धि की संपत्ति मिलेगी जो सादि अनन्त काल तक भोगना, मुक्ति श्री तो स्थायी रहेगी, जिसका निरन्तर अतीन्द्रिय आनन्द परमानन्द भोगना है।
अब यह तो सब ज्ञान, श्रद्धान में आ ही गया है, स्वयं के अनुभव प्रमाण है। देख लो यह धर्म की महिमा, अतिशय कि ऐसे निकृष्ट काल, निकृष्ट कर्मोदय में कैसे निराकुल, निःशल्य निश्चिन्त-निर्विकल्प आनन्द में रह रहे हो। वस्तु स्वरूप सामने दिख रहा है। ध्रुव धाम की सत्ता मिल ही गई। यह सम्यज्ञान प्रकाश में वस्तु-स्वरूप स्पष्ट दिखने लगा, एकत्व, अपनत्व, कर्तृत्व, खत्म