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श्री कमलबत्तीसी जी
गाथा-२७ सेस्ट च गुन उवन्न, सेस्ट सहकार कम्म संषिपन । सेस्टं च इस्ट कमलं, कमलसिरि कमल भाव ममलं च ॥
शब्दार्थ- (सेस्ट च) श्रेष्ठ, इष्ट, सर्वोत्कृष्ट,ममल स्वभाव की साधना से (गुन उवन्नं) गुण प्रगट होते हैं। पंच परमेष्ठी,पंचज्ञान, दश धर्म, रत्नत्रय, अनन्त चतुष्टय आदि अनन्त गुण (स्रेस्टं सहकार ) श्रेष्ठ परमात्म स्वरूप का आश्रय, सहकार-स्वीकार करने से (कम्म संषिपन) सारे कर्म क्षय हो जाते हैं (सेस्ट) श्रेष्ठ, एक मात्र आधार (च) और (इस्ट) इस्ट प्रयोजनीय (कमल) कमल स्वभाव है (कमलसिरि) कमल श्री (कमलावती) आत्मा (कमल भाव) निर्लिप्त, निर्विकारी भाव में रहो (ममलंच) ममल स्वभाव ही श्रेष्ठ इष्ट है, इसी की साधना करो।
विशेषार्थ - सर्वोत्कृष्ट, परम इष्ट अपना ममल स्वभाव है, इसकी साधना करने से श्रेष्ठ गुण, पंच परमेष्ठी पद, पंच ज्ञान, दश धर्म, रत्नत्रय, अनन्त चतुष्टय आदि अनन्त गुण प्रगट होते हैं। इसी श्रेष्ठ, परम इष्ट, निज परमात्म स्वरूप का आश्रय करने, उस मय रहने से सारे कर्म क्षय हो जाते हैं इसलिये हे कमल श्री! अपना कमल भाव जाग्रत करो, जो ज्ञायक स्वभावी, निर्मलनिर्लेप परमात्म स्वरूप है। यही निज शुद्धात्मा श्रेष्ठ और इष्ट है। अपना आत्म स्वभाव कर्मों से सदैव भिन्न है, इसी की साधना करो। ममल स्वभाव में लीन रहना ही चारित्र साधु पद है, यही सम्यक्चारित्र है। अपना आत्म बल जगाओ, सत्पुरूषार्थ करो । स्वयं अभय, अटल, अडोल, अकम्प, अपने में स्वस्थ रहो फिर यह कर्मादि कोई भी भयभीत, भ्रमित नहीं करते, स्वयं ही क्षय हो जाते हैं।
कर्मों के उदय को, निमित्त, संयोग, मन, पर्याय आदि को नहीं देखना, यह तो सब अनिष्ट हैं। सर्वोत्कृष्ट, श्रेष्ठ, परम इष्ट तो अपना निज शुद्धात्म स्वरूप ममल स्वभाव है, उसका लक्ष्य रखो। आलम्बन लो, लीन रहो तो यह सम्पूर्ण कर्म क्षय हो जाते हैं। अपने स्वभाव में तो पर पर्याय, कर्मादि हैं ही नहीं, इनकी सत्ता मानना महत्व देना ही अज्ञान है।
आत्मा में जो पंच महाव्रत, संयम, तप, भक्ति आदि के परिणाम होते हैं, सो शुभ राग है, आश्रव बंध है। राग रहित व सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता रूप अपने परम पारिणामिक भाव ममल स्वभाव में रहना ही धर्म है।
श्री कमलबत्तीसी जी इसी से संवर, निर्जरा और मोक्ष होता है। बाह्य क्रिया सुधरने से मेरे परिणाम सुधरेंगे तथा मंद कषाय परिणाम से धर्म होता है। इस प्रकार के अभिप्राय की गन्ध भी अन्तर में रह जाने का नाम मिथ्या वासना है। ऐसी वासना रखकर बाह्य में पंच महाव्रत का पालन तथा दया, दानादि की चाहे जितनी क्रिया व मंद कषाय करे तो भी धर्म नहीं होता। ___ आत्मा में भेदज्ञान पूर्वक निज का अवलम्बन लेने पर जो आत्म धर्म होता है, वह अनुभव प्रकाश है, उस समय चारित्र गुण की मिश्र दशा होने पर आंशिक निर्मलता व आंशिक मलिनता होती है? वह मलिनता कर्म के कारण से नहीं होती, स्वयं के मोह राग-अज्ञान के कारण होती है।
मोक्ष केवल एक अपने ही आत्मा की पर के संयोग रहित शुद्ध अवस्था का नाम है, तब उसका उपाय भी निश्चय नय से यही है कि अपने आत्मा का शुद्ध अनुभव किया जावे तथा श्री जिनेन्द्र परमात्मा-अरिहन्त सर्वज्ञ स्वरूप या सिद्ध परमात्मा के समान ही अपने को माना जावे तब अनादि की मिथ्या वासना का अभाव होगा।
शुद्ध निश्चय नय से सम्यक्दर्शन ज्ञान सहित अपने स्वरूप का चिन्तवन ध्यान करना कि मैं सिद्ध के समान परम निश्चल हूँ, योग की चंचलता से रहित हूँ, मन-वचन-काय के पन्द्रह योगों से शून्य हूँ, मैं कर्म तथा नो कर्म का आकर्षण करने वाला नहीं, न मेरे में अजीव तत्व है, न आश्रव तत्व है, न बंध तत्व है, न संवर तत्व है, न निर्जरा तत्व है, न मोक्ष तत्व है। मैं तो सदा ही शुद्ध जीवत्व का धारी, एक जीव तत्व परिपूर्ण परमात्मा हूँ। सुख-सत्ताचैतन्य (स्वानुभूति) - बोध यह चार ही मेरे प्राण हैं, जिनसे मैं सदा जीवित हूँ।
जैसे सिद्ध परमात्मा कृत-कृत्य हैं, वैसे ही मैं कृत-कृत्य हूँ। न वे जगत के रचने वाले हैं, न मैं जगत का रचने वाला हूँ।न वे किसी को सुख-दुःख देते हैं,न मैं किसी को सुख-दु:ख देता हूँ। वे जगत के प्रपंच से भिन्न-निराले हैं, मैं भी जगत के प्रपंच से भिन्न-निराला हूँ। वे असंख्यात प्रदेशी अखंड हैं, मैं भी असंख्यात प्रदेशी अखंड हूँ। सिद्ध भगवान सर्व गुणस्थान की श्रेणियों से बाहर हैं,मैं भी गुणस्थानों से दूरवर्ती हूँ। सिद्ध भगवान-स्वतंत्र मुक्त हैं, अपने में परिपूर्ण हैं, वैसे ही मैं भी अपने में स्वतंत्र मुक्त परिपूर्ण हूँ तथा ऐसे ही जगत के समस्त जीव आत्मा हैं। इस द्रव्य दृष्टि से देखने से मोह-राग-द्वेष का अभाव होकर समभाव आता है। शुद्ध दृष्टि ममल स्वभाव में रहने से अनेक