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सम्यकदर्शन ज्ञान सहित जो सम भावना, वीतराग भावना होती है वही चारित्र है। अपने शुद्ध स्वभाव में आचरण करना ही चारित्र है। चारित्र के दो भेद जानो - पहला सम्यक्त्वाचरण चारित्र और दूसरा संयमाचरण चारित्र है। पहले सम्यक्त्वाचरण से शुद्ध होना, पश्चात् संयमाचरण चारित्र होगा।
सम्यक्त्व का उदय होते ही दृष्टि परिवर्तन लक्षित होने लगता है। जो दृष्टि पहले क्षणिक की ओर थी, इन्द्रिय सुखों की ओर थी वह अब नित्य शाश्वत एवं स्थायी सुख स्वरूप आत्मा के सन्मुख होजाती है। ग्रहीत मिथ्यात्व छूटते ही सच्चे देव, गुरू, शास्त्र की श्रद्धा प्रगट हो जाती है, दृष्टि आत्मा के सन्मुख हो जाती है। चूंकि बुद्धिपूर्वक उसने विपरीत श्रद्धान को ग्रहण कर रखा था, इसीलिये बुद्धिपूर्वक शुद्धात्म स्वरूप का निर्णय कर उस ओर झुक जाता है। क्षणिकता की ओर से उसकी रूचि हटकर आत्मा के ध्रुव गुणों में रूचि बढ़ जाती है। वास्तव में शुद्धात्मा की ओर झुकने, बढ़ने रूप जो उपयोग होता है इसी को स्वरूपाचरण या सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहते हैं। असंयतादि गुणस्थानों में सम्यक्त्व के कारण परिणामों में जो निर्मलता एवं आंशिक स्थिरता होती है, उसको आगम में सम्यक्त्वाचरण रूप चारित्र कहा गया है। मोक्षमार्ग में इसका प्रधान स्थान है। इसकी पूर्णता बारहवें गुणस्थान में होती है।
सम्यक्दर्शन ज्ञान पूर्वक पापादि से निवृत्ति रूप जो आचरण, संयम का पालन, इंन्द्रियों का निग्रह, कषायों पर विजय पूर्वक अपने स्वरूप की सुरत रखना संयमाचरण चारित्र है, यह सम्यक्दर्शन पूर्वक ही होता है । अणुव्रत, महाव्रत रूप आचरण इसकी विशेषताएं हैं।
ऐसे आनंदमयी मोक्षमार्ग के आधारभूत सम्यक्चारित्र का प्रतिपादन श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ने इस ग्रंथ में किया है और इस ग्रंथ का नाम दिया है- "कमल बत्तीसी ।कमल स्वभाव की साधना-आराधना, चारित्र संयम आचरण का विधि विधान ३२ गाथाओं में होने के कारण इस ग्रंथ का कमल बत्तीसी नाम “यथा नाम तथा गुण' को प्रसिद्ध कर रहा है। कमल बत्तीसी नाम होने के पीछे एक विशेष कारण यह भी है कि श्री गुरू तारण तरण देव की जन्मस्थली का नाम पुष्पावती है। यह प्राचीनकाल से ऐतिहासिक नगरी रही है। पुष्पावती के "पंच पकार"आज भी प्रसिद्ध हैं -पान, पन्हैया, पानी, पत्थर और पुष्प । इनमें से पुष्प की जहां तक बात है, उस नगरी में आज भी कमल पुष्प वहाँ के तालाबों में खिलते हैं। पूर्व के शासक राजामहाराजाओं ने वहाँ जो मंदिर बावड़ी आदि के निर्माण करवाये उनमें कमल पुष्पों की रचना महत्वपूर्ण है और आज भी पत्थर-पत्थर पर उत्कीर्ण पुष्प मिलते हैं। कमल पुष्प की बड़ी विशेषता है, वह यह कि कमल, पानी और
कीचड़ में रहता हुआ भी सबसे अलिप्त न्यारा रहता है। इसी प्रकार आत्म तत्व चैतन्य कमल भी द्रव्यकर्म, भाव कर्म.नोकर्म आदि के संयोगों में रहता हुआ भी सदैव निर्लिप्त न्यारा ज्ञानमय ज्ञायक चैतन्य स्वरूप ही रहता है। श्री गुरूदेव तारण स्वामी जी ने ऐसा अपने कमल स्वभाव का अनुभवन किया और उसी की महिमा को व्यक्त करने हेतु यह कमल बत्तीसी जी ग्रंथ लिखा।
जैसे - कमल, पानी कीचड़ में रहता हुआ भी खिला रहता है। इसी प्रकार मोक्षमार्गी ज्ञानी साधक सब संयोगों में रहता हुआ भी कमल की तरह प्रफुल्लित रहता है यही धर्म और चारित्र की सच्ची आराधना है। कहा भी है
स्वसत्ता पर के स्वरूप का, जिसको सम्यज्ञान जगा । मिथ्याभाव शल्य आदिका, भ्रम भय सब अज्ञान भगा ॥ सारे कर्म विला जाते हैं, धरता आतम ध्यान है। कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई,बनता वह भगवान है॥
(पू. श्री ज्ञानानंद जी महाराज, कमल बत्तीसी जयमाल) यह एक सुखद शुभ योग है कि इस कमल बत्तीसी ग्रंथ की पूज्य श्री स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज ने “अध्यात्म कमल" नामक टीका की है। सर्वत्र कमल स्वरूप शुद्धात्म देव की ही महिमा है। गुरूदेव तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ने इस ग्रंथ की ३२ गाथाओं में जो रहस्य स्पष्ट किया है। पू. श्री महाराज जी ने अपनी भाषा में वे सभी आध्यात्मिक साधना परक रहस्य स्पष्ट किये हैं, जो ग्रंथ की गाथाओं में निहित हैं। अनुभव प्रकाश हेतु कतिपय रत्न प्रस्तुत हैं
कर्म बंधनों से सर्वथा मुक्त होना हो तो एक ही उद्देश्य हो-तत्व ज्ञान की प्राप्ति करना और इसके लिये सांसारिक संग्रह में, भोग बुद्धि, सुख बुद्धि और रस बुद्धि नहीं होना तथा निषिद्ध आचरण पाप, अन्याय, झूठ, कपट आदि का हृदय से त्याग कर देना तभी अपने स्वरूप में तन्मयता होती है, जिससे समस्त कर्म बंध क्षय होते हैं।
(गाथांश-६) शरीर इन्द्रियां,मन बुद्धि के द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियायें पृथक भिन्न,ज्ञेय ही हैं तथा जीवात्मा स्वयं इनसे सर्वथा निर्लिप्त असम्बद्ध और पृथक ही है।
(गाथांश-७) सद्गुरू तारण स्वामी कहते हैं कि मन को शान्त नहीं करना, स्वयं शान्त होना है, भाव विभावों को नहीं बदलना है, स्वयं निज स्वभाव में रहना है। यह मन आदि तो स्वयं ही नाशवान हैं। जैसे- आकाश में बादल दिखाई देते हैं लेकिन थोड़े समय में सब अपने आप विला जाते हैं, ऐसे ही यह मन संसारी