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उपकार किया है।
सम्यक्दर्शन के बिना ज्ञान, सम्यक्ज्ञान नहीं होता और सम्यक्दर्शन ज्ञान के बिना चारित्र, सम्यक्चारित्र नहीं होता इसीलिए सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता को ही आचार्यों ने मोक्षमार्ग कहा है। सम्यक्चारित्र की विशेषता और उसमें रत रहने की प्रेरणा देते हुए पूज्य तारण तरण गुरूदेव कहते हैं
अप्पा परू पिच्छन्तो, पर पर्जाव सल्य मुक्तानं ।
न्यान सहावं सुद्ध, सुखं चरनस्य अन्मोय संजुत्तं ॥ अर्थात् आत्मा और पर को भिन्न-भिन्न पहिचानने से पर पर्याय शल्य छूट जाती हैं। अपना ज्ञान स्वभाव शुद्ध है, इसी ज्ञान स्वभाव में लीन रहो यही शुद्ध सम्यक्चारित्र है।
जिन धर्म प्रभावक, महान संत आचार्य कुन्द कुन्द देव ने भी इसी प्रकार सम्यक्चारित्र का स्वरूप प्रतिपादित किया है
चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समोत्ति णिदिहो। मोहक्खोह विहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो ॥
(प्रवचनसार गा.७) तत्वत: चारित्र ही धर्म है, यही धर्म साम्य स्वरूप है। मोह तथा क्षोभ (राग-द्वेष) रहित आत्म परिणति ही जीव का सच्चा धर्म है।
चारित्र ही धर्म है यह बात सूक्ष्म है, सामान्य रूप से संसार समझता है क्रियाकांड अर्थात् चारित्र । चारित्र शब्द सुनते ही जग के जीवों को "क्रिया करना" ऐसा अहसास होने लगता है किन्त ज्ञानी विवेकवान जीव. चारित्र के वास्तविक अभिप्राय को जानते हैं। ज्ञानियों के ज्ञान में चारित्र या वस्तु स्वरूप के बारे में भ्रम नहीं रहता। यदि ज्ञानी स्वरूप में रमणता को निश्चय चारित्र जानते हैं तो पाप, विषय-कषायों से निवृत्ति को व्यवहार चारित्र जानते हैं और जैसा जानते हैं,मानते हैं वैसा ही आचरते हैं। ज्ञानी स्वतंत्र होता है, स्वच्छंद नहीं होता। ज्ञानी, तत्व ज्ञान की आड़ में विषय पोषण और मनमानी करने के अभिप्राय से पूर्णत: रहित है। उसका प्रयोजन वीतरागी होना है वह संसार के दु:खों से भयभीत, संवेगी, आत्मार्थी है।
जो जीव तत्व निर्णय की आड़ में विषयों का, पापों का पोषण करते हैं उनने सत्य को समझा ही नहीं है। कोई व्यक्ति किसी की वस्तु बिना पूछे उठा लेवे और बाद में उस व्यक्ति पर चोरी करने का आरोप लगे और वह कहे कि "मैंने चोरी नहीं की" यह तो उस वस्तु का क्षेत्र से क्षेत्रान्तर हुआ है, ऐसा मानने वाला जीव महा अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है।
कोई जीव रूचिपूर्वक पाप करे, जुआं आदि व्यसनों का सेवन करे, अन्याय
अनीतिपूर्ण जीवन जिये और कहे कि "वह तो जो होना है वह सब तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है, सब क्रमबद्ध परिणमन है।" ऐसे जीवों की बुद्धि पर ज्ञानी संत भगवन्तों को तरस आता है कि हे जीव! तुझे अभी लोक व्यवहार, लोकाचार का ही ख्याल नहीं है तो निश्चय धर्म, वस्तु स्वरूप, सत्य तुझे कैसे उपलब्ध होगा?
वस्तुत: तत्वनिर्णय स्वच्छंदी होने के लिए नहीं, वीतरागी होने के लिए है। अज्ञानी तत्व निर्णय की आड़ में स्वच्छंद वर्तन कर अपनी ही दुर्गति का मार्ग बनाता है और धर्म मार्ग को कलंकित करता है। जो ज्ञान. विषय और पापों की ओर ले जाये वह सारा ज्ञान, कुज्ञान, अज्ञान है। सच्चा ज्ञान वही है जो जीव को पाप विषय कषायों से निवृत्त कर संयम और चारित्र में स्थित कर देता है। जिस भव्य जीव के अंतरंग में सम्यकज्ञान की कला जागे और फिर वह संसार के विपरीत मार्ग में चले यह संभव ही नहीं है - नाटक समयसार से यह कथन प्रमाणित है जैसा कि कहा गया है
जिनके ज्ञान कला घट जागी, ते जग मांहि सहज वैरागी।
शानी मगन विषय सुख माहीं, यह विपरीत संभवे नाहीं॥ ज्ञानी का जीवन तो निश्चय-व्यवहार से समन्वित होता है वह जानता है कि
"मुक्ति श्रियं पर्थ सुद्ध, विवहार निस्चय सास्वतं" इसीलिए ज्ञानी की अन्तरंग भावना होती है कि -
अध्यात्म ही संसार के, क्लेशोदधि का तीर है। चलता रह इस मार्ग पर, मिट जायेगी भव पीरहै॥ ज्ञानी बनूं ध्यानी बनूं अरू, शुद्ध संयम तप धरूं। व्यवहार निश्चय से समन्वित, मुक्ति पथ पर आचलं ॥
(ब. बसंत-अध्यात्म आराधना) सम्यक्चारित्र प्रत्यक्ष मुक्ति का द्वार है। सम्यक्चारित्र क्या है, उसके भेद कौन से हैं और किस प्रकार उनका जीवन में प्रयोग आचरण होता है ? इस रहस्य को श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ने स्वयं स्पष्ट किया
न्यानं दंसन सम्म, सम भावना हवदि चारित्तं । चरनं पि सुद्ध चरनं, दुविहि चरनं मुनेयव्वा ॥ सम्मत्त चरन पढ़म, संजम घरनपि होइ दुतिय च। सम्मत्त चरन सुद्ध, पच्छादो संजम चरनं ॥
(ज्ञानसमुच्चयसार गा.२६२-२६३)