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भाव भी सब नाशवान विला जाने वाले हैं। तुम इन्हें मत देखो, भेदज्ञान तत्व निर्णय के बल से अपने शुद्ध स्वभाव, ममल स्वभाव में लीन रहो, यही मुक्ति मार्ग है।
(गाथांश-७) कर्म के फल के प्रति उदासीन ज्ञानी के कर्माश्रव नहीं होता, पूर्वबद्ध कर्मों को उदय में आने से वह रोक नहीं सकता अत: उसकी इच्छा के बिना भी वे उदय में आते हैं तथापि उस उदय स्थिति में ज्ञानी कर्म के परवश नहीं होता किन्तु अपने ममल स्वभाव की श्रद्धानुसार अपने ज्ञान स्वभाव में लीन रहता है। अपना उपयोग अन्यत्र न जावे,अपने में रहे यही उसका पुरूषार्थ है।
(गाथांश-८) सम्यक्दर्शन होने पर सम्यक्ज्ञान द्वारा वस्तु स्वरूप को जाना जाता है। तब राग-द्वेष और पांचों इन्द्रियों के विषयों से विरक्ति हो जाती है फिर रागद्वेष विषयादि स्वयं छूटने लगते हैं यही सम्यक्चारित्र का प्रगटपना है। सम्यकदर्शन सम्यज्ञान सहित सम्यक्चारित्र की एक मुहूर्त की स्थिति में सारे घातिया कर्मों का क्षय होकर अनन्त चतुष्टय स्वरूप अरिहन्त पद प्रगट हो जाता है।
(गाथांश-८) कर्मोदय परिणामों में, रागादि भावों में भ्रमना, चकराना, उन्हें अच्छे बुरे मानना, यही अज्ञान बंध का कारण है इसलिए भेदज्ञान पूर्वक तत्व निर्णय करके अपने ममल स्वभाव में रहो। अपने शुद्ध चैतन्य ज्ञान स्वभावी शुद्धात्मा को देखो, उसी की साधना अभ्यास करो तो फिर यह कुछ होगा ही नहीं, ज्ञानी होने के बाद सम्यक्चारित्र का यही पुरूषार्थ है।
(गाथांश-१५) आत्मा ही आनंद का धाम है उसमें अन्तर्मुख होने से ही सुख है। ऐसे अपने आत्म स्वभाव का जो विरोध करते हैं और संसारी व्यवहार जीवों के दया, दान परोपकार आदि राग भाव को धर्म मानते हैं, वे संसार परिभ्रमण के दुःख का बीज बोते हैं।
(गाथांश-२३) चतुर्गति के दुःख से छूटने और मुक्त होने का एक ही उपाय है कि सहज ज्ञान और आनन्द आदि अनन्त गुण समृद्धि से परिपूर्ण जो निज शुद्धात्म तत्व ममल स्वभाव है, उसे अपूर्ण विकारी और पूर्ण पर्याय की अपेक्षा बिना लक्ष्य में लेना, अपने धुव स्वभाव का लक्ष्य करना वह द्रव्य दृष्टि है, शुद्ध दृष्टि है। यथार्थ ज्ञान करके अपने ममल स्वभाव में एकाग्र होना तब ही परमात्म रूप
समयसार अनुभूत होता है। आत्मा का अपूर्व और अनुपम अतीन्द्रिय आनन्द अनुभव में आता है, आनन्द अमृत के झरने, झरते हैं। इससे संसार से दृष्टि हट जाती है, व्यवहार छूट जाता है, वीतरागता प्रगट होती है यही सम्यक्चारित्र मुक्ति मार्ग है।
(गाथांश-२४) इस प्रकार के अनेकों रहस्य पूज्य श्री ने इस टीका ग्रंथ में स्पष्ट किये हैं। प्रश्नोत्तर, विशेषार्थ, शब्दार्थ आदि के द्वारा विषय वस्तु बहुत स्पष्ट हुई है। एक गाथा से दूसरी गाथा के बीच जो सम्बन्ध है उसे बनाने और विषयवस्तु के स्पष्टीकरण हेतु प्रत्येक गाथा से पूर्व प्रश्न रखकर संपूर्ण ग्रंथ को पूज्य श्री ने अखण्डता प्रदान कर दी है।
इस प्रकार की टीकायें अपने आप में विशेष महत्वपूर्ण हैं, साथ ही भव्य जीवों को, स्वाध्यायी मुमुक्षु भव्यात्माओं को विशेष उपलब्धि है। इस प्रकाशन के पूर्व श्री मालारोहण और पंडित पूजा की टीकाओं का प्रकाशन हुआ, जिससे समाज में स्वाध्याय के रूप में नवीन क्रम बन रहा है। वस्तुत: इन ग्रंथों का सदुपयोग तभी है जब सामूहिक रूप से इनका स्वाध्याय मनन हो और अपनी दृष्टि आत्मोन्मुखी हो यही इन टीकाओं का यथार्थ उपयोग है।
पूज्य श्री द्वारा की गई यह टीकायें आत्मार्थी जीवों के लिए विशेष देन है और महान उपकार है कि सभी भव्य जीवों के लिये सत्य धर्म, वस्तु स्वरूप समझने और आत्म कल्याण करने का मार्ग प्रशस्त किया।
सभी भव्य जीव इन टीका ग्रंथों के स्वाध्याय. चिंतन-मनन से रत्नत्रय मयी आत्म स्वरूप को स्वानुभव में प्रगट करें और अनादिकालीन मोह-माया के बंधन से मुक्त होकर अविनाशी शाश्वत परम पद को प्राप्त करने का मंगलमय पथ प्रशस्त कर इस अनमोल मानव जीवन को सफल बनायें, यही पवित्र भावना है। ब्रह्मानंद आश्रम, पिपरिया दिनांक-१५ मार्च १९९९
अ. बसंत
चैतन्य स्वभाव का अनुभवी ज्ञानी, जाति और कुल को नहीं देखता बल्कि शद्ध सम्यक्त्व सहित आत्मानुभव रूप सम्यग्दर्शन को पहिचानता है। शुद्ध ज्ञान स्वभाव की अनुमोदना में रत रहता हुआ अज्ञान सल्य और
मिथ्यात्व को छोड़ देता है।