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________________ श्री कमलबत्तीसी जी इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैं गाथा-२५ इस्टंच परम इस्ट,इस्ट अन्मोय विगत अनिस्ट । पर पर्जाव विलियं,न्यान सहावेन कम्म जिनिय च॥ शब्दार्थ- (इस्ट) परमात्मा, प्रयोजनीय, प्रिय, इष्ट, ज्ञान स्वभाव है (च) और (परम इस्ट) निज शुद्धात्मा, सिद्ध स्वरूप, परमात्मा पद (इस्ट) इसी इष्ट में, मूल लक्ष्य (अन्मोय) लीन रहो, आलम्बन लो, आश्रय करो (विगत) छूट जायेंगे (अनिस्टं) सारे अनिष्ट, रागादि विकारी भाव (विलियं) विला जायेंगे (पर) शरीरादि संयोग (पर्जावं) पर्यायी परिणमन, अन्तरंग में चलने वाले भाव (न्यान सहावेन) ज्ञान के बल से, ज्ञान स्वभाव की साधना से, ज्ञानोपयोग द्वारा (कम्म जिनियं च) कर्मों को जीतो, कर्मों को जीत जाओगे। विशेषार्थ-निज शुद्धात्मा-ज्ञान स्वभाव ही इष्ट और परम इष्ट है। अपने इष्ट-चैतन्य मय, ज्ञान स्वभावी शुद्धात्म स्वरूप का आश्रय करो, आलम्बन लो, लीन रहो। इससे अनिष्टकारी समस्त रागादि विकार छूट जायेंगे, पर पर्यायें विला जायेंगी, ज्ञान बल लगाओ, ज्ञान स्वभाव की साधना करो। अपने ज्ञान-स्वभाव में रहकर कर्मों को जीतो। अब कर्मोदय से डरते क्यों हो? पर पर्याय की ओर की वृत्ति-चाहे वह शुभ हो, चाहे वह अशुभ हो, सब अनिष्ट ही है। स्व-स्वरूप की वृत्ति-अनुभूति ही इष्ट है। पर दृष्टिपर भाव में आकुलता, चिन्ता, भय, दु:ख होते हैं। स्व दृष्टि-स्वभाव में-निराकुलता,सुख, शांति, आनन्द होता है। बहुत से जीव विकल्प का, पर भावों का अभाव करना चाहते हैं तथा स्थूल विकल्प अल्प हो जाने पर या अशुभ रूप से-शुभ रूप हो जाने पर विकल्प का अभाव मानते हैं परन्तु वास्तव में जिसका लक्ष्य, विकल्प का अभाव करने का है, उसके विकल्प का अभाव नहीं होता लेकिन जिसमें विकल्प का ही अभाव है, ऐसे शुद्ध चैतन्य को लक्ष्य में लेकर एकाग्र होने से विकल्प का अभाव हो जाता है। मैं इस विकल्प का निषेध कलं,रोकू,बदलू जिसका ऐसे विकल्प का निषेध करने की ओर लक्ष्य है। उसका लक्ष्य राख आत्मा की ओर स्व सन्मुख ही नहीं आ, उल्टे विकल्प की ओर ही सका है अत: उसके तो विकल्प की ही उत्पत्ति होगी। शुद्ध आत्मा की ओर श्री कमलबत्तीसी जी ढलना ही विकल्प के अभाव होने की रीति है। उपयोग का झकावअन्तर्मुख स्वभाव, अपने इए की ओर होने से सारे अनिष्ट रूप विकल्प छूट जाते हैं। निज शुद्धात्म स्वरूप में मिथ्यात्व व रागादि विभाव हैं ही नहीं, उसमें रूचि करने, तन्मय होने पर मिथ्यात्वादि टलता है। अपने इष्ट का आलम्बन लेने पर ही अनिष्ट से छुटकारा होता है। संयोगों का लक्ष्य छोड़ दे और निर्विकल्प निज स्वरूप का आश्रय ले। ॐकार स्वरूप परमात्मा, सिद्ध स्वरूपी, ध्रुव तत्व में हूँ। ऐसा सत्श्रद्धान ज्ञान, दृढ़ता, स्थिरता होने से समता, शांति, आनन्द होगा, सब दु:ख और अनिष्ट का नाश होगा। दृष्टि का विषय द्रव्य स्वभाव है। इष्ट और परम इष्ट निज शुद्धात्मा है। उसमें तो अशुद्धता की उत्पत्ति ही नहीं है परन्तु समकिती को अन्तर शुद्ध स्वरूप की इष्टता और स्वानुभव होने पर भी अभी आसक्ति-शेष है। जो उसे दुःख रूप अनिष्ट लगती है। रूचि और दृष्टि की अपेक्षा से भगवान आत्मा तो अमृत स्वरूप आनन्द का सागर है। जिसका प्रत्यक्ष अनुभव सम्यक्दृष्टि ज्ञानी करता है। ज्ञानी अपने इष्ट और परम इष्ट स्वरूप के आलम्बन द्वारा अन्तर स्वरूप में स्थिरता करता है, तब सारे अनिष्ट रूप रागादि परिणाम और पर पर्याय विला जाती हैं। प्रश्न-जब आत्मा में रागादि विकारी भाव, पर पर्याय. कर्मादि हैं ही नहीं, तो फिर यह होते क्यों हैं? समाधान-शुद्ध निश्चय नय, द्रव्य स्वभाव-सिद्ध स्वरूप की अपेक्षा कुछ है ही नहीं, परन्तु अज्ञान दशा में संसारी, कर्म संयोग होने के कारण यह होते हैं। जब जीव भेदज्ञान द्वारा स्व-पर का यथार्थ निर्णय कर लेता है, वस्तु स्वरूप जान लेता है, अपने स्वरूप ममल स्वभाव में रहने की साधना करता है, तब यह छूट जाते हैं, संयोग सम्बन्ध टूटता जाता है। पूर्ण शुद्ध स्वभाव में स्थित होने पर फिर यह होते ही नहीं हैं। धर्मी को शुभ परिणाम भी अनिष्ट रूप लगते हैं, वह उनसे भी छूटना ही चाहता है परन्तु वे भूमिकानुसार आये बिना नहीं रहते, ये भाव आते हैं तब वह स्वरूप स्थिरता का पुरूषार्थ करता है। इससे कोई-कोई समय बुद्धि पूर्वक के सभी विकल्प छूट जाते हैं और वह सहज स्वरूप में स्थिर हो जाता है। उस समय उसे सिद्ध परमात्मा जैसा अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव होता
SR No.009717
Book TitleKamal Battisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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