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श्री कमलबत्तीसी जी कहाँ से प्रगट हो? इसलिये अपने स्व समय शुद्धात्मा-ज्ञान स्वभाव का निर्णय कर उसका आश्रय आलम्बन-स्मरण-ध्यान करना ही साधक की साधना है। साधक को आश्रय तो आरम्भ से पूर्णता तक एक ध्रुव तत्व-शुद्धात्माममल स्वभाव-ज्ञान स्वरूप का ही होता है। शुद्ध दृष्टि-ध्रुव तत्व अखंड ज्ञान स्वभाव के सिवाय किसी पर ध्यान नहीं देती। अशुद्ध पर्याय पर नहीं, शुद्ध पर्याय पर नहीं, गुण भेद पर नहीं, बस एक अखंड ध्रुव-ध्रुव-धुव, ममल स्वभाव ही दृष्टि में निरन्तर झूलता है। बाह्य में सब कुछ हो, उसमें भक्ति उल्लास के कार्य हों तो भी उनमें आत्मा का आनन्द नहीं है। अन्तर अतीन्द्रिय आनन्द वही सच्चा आनन्द है। ऐसे अतीन्द्रिय आनन्द ज्ञान स्वभाव ममल भाव को ग्रहण करके जब साधक प्रमत्त-अप्रमत्त स्थिति में झूलते हैं, वह साधु पद मुनि दशा धन्य है। साधु को एकदम स्वरूप रमणता जाग्रत है। स्वरूप कैसा है, ज्ञान-आनन्दादि गुणों से भरपूर है। पर्याय में समता भाव प्रगट है। शत्रु-मित्र के विकल्प रहित है, निर्मानता है। "देह जाय पर माया होय न रोम में सोना हो या तिनका सब समान है। चाहे जैसे संयोग हों, अनुकूलता में आकर्षित नहीं होते,प्रतिकूलता में खेद नहीं करते। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं, त्यों-त्यों सम रस भाव अतीन्द्रिय आनन्द विशेष प्रगट होता है। जहाँ आठवें गुण स्थान से क्षपक श्रेणी माड़कर, ध्यान समाधि में लीन हुये, शुक्ल ध्यान होते ही अड़तालीस मिनिट में देवता-जय-जय कार करते हुये आते हैं। बस, यही मुक्ति मार्ग है।
चतुर्गति के दु:ख से छूटने और मुक्त होने का एक ही उपाय है कि सहज ज्ञान और आनन्द आदि अनन्त गुण समृद्धि से परिपूर्ण जो निज शुद्धात्म तत्व-ममल स्वभाव है, उसे अपूर्ण-विकारी और-पूर्ण पर्याय की अपेक्षा बिना लक्ष्य में लेना अपने ध्रुव स्वभाव का लक्ष्य करना, वह द्रव्य दृष्टि है, शुद्ध दृष्टि है, यथार्थ ज्ञान करके अपने ममल स्वभाव में एकाग्र होना, तब ही परमात्म रूप समयसार अनुभूत होता है। आत्मा का अपूर्व और अनुपम अतीन्द्रिय आनन्द अनुभव में आता है। आनन्दामृत के झरने झरते हैं। इससे संसार से दृष्टि हट जाती है, व्यवहार छूट जाता है, वीतरागता प्रगट होती है यही सम्यक्चारित्र मुक्ति मार्ग है।
जैसे सिद्ध भगवान किसी के आलम्बन बिना-स्वयमेव अतीन्द्रिय
श्री कमलबत्तीसी जी ज्ञानानन्द स्वरूप में परिणमन करने वाले दिव्य सामर्थ्यवंत देव हैं,तादृश सभी आत्माओं का स्वभाव ज्ञानानन्दमयी है। ऐसा निरावलम्बीशान और सुख स्वभाव रूप मैं हूँ। ऐसा लक्ष्य में लेने पर ही जीव का उपयोग अतीन्द्रिय होकर उसकी पर्याय में ज्ञान और आनन्द खिल जाता है। पूर्व में कभी अनुभव में नहीं आई, ऐसी चैतन्य शांति वेदन में आती है। इस तरह आनन्द का अगाध सागर प्रतीति में,ज्ञान में और अनुभूति में आ जाता है। स्वयं का परम इष्ट परम सुख प्राप्त होता है और अनिष्ट रूप सारा जन्म-मरण का दु:ख दूर हो जाता है।
जड़ शरीर की क्रिया, व्यवहार साधन से चतुर्गतिरूप संसार नहीं मिटता, अनादि अनन्त ऐसा जो एक निज शुद्ध चैतन्य स्वरूप है, उसके स्व सम्मुख होकर आराधना करना, वही परमात्मा होने का सच्चा उपाय है।
जिसे मुक्ति चाहिये, संसार परिभ्रमण से छूटना है, उसे सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप मोक्षमार्ग ही स्वीकार करना होगा, निश्चय रत्नत्रय की साधना ही यथार्थ मोक्षमार्ग है। व्यवहार रत्नत्रय साधन है। साधक जीव प्रारम्भ से अंत तक निश्चय की ही मुख्यता रखकर व्यवहार को गौण ही करते जाते हैं। इससे साधक दशा में निश्चय की मुख्यता के बल से शुद्धता की वृद्धि होती है, अशुद्धता टलती जाती है। इस प्रकार निश्चय की मुख्यता के बल से पूर्ण केवलज्ञान होने पर, वहाँ मुख्य गौणपना नहीं होता और नय भी नहीं होते हैं। ___ अपने ज्ञान स्वभाव-शुद्ध स्वरूप को ध्येय बनाकर उसमें एकाग्रता का प्रयत्न करना, यही मुक्ति मार्ग है।
अपना स्वरूप ज्ञान स्वभावी है, यह शरीरादि रूप नहीं है, ऐसा दृढ निश्चय श्रद्धान-ज्ञान करके, ममल स्वभाव में रहना । इसी का बार-बार चिन्तनमनन करना।"पर परजय हो दिष्टि न देई, सो ममल सुभाये" पर पर्याय पर दृष्टि न देना ही ममल स्वभाव है। "अप्या अप्पम्मिरओ"आत्मा-आत्मा में लीन हो जाये, यही मुक्ति मार्ग है। इसी से केवलज्ञान प्रगट होता है, सिद्ध परम पद की प्राप्ति होती है।
प्रश्न- हम पूरा जोर लगाते हैं, पुरुषार्थ करते हैं कि अपने ममल स्वभाव में रहें परन्तु यह पर पर्याय में इष्ट-अनिष्टपना, कर्मोदय का भयभीतपना नहीं मिटता, इसके लिये क्या करें?
है।
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