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श्री कमलबत्तीसी जी अपनी योग्यतानुसार ही परिणमन करते हैं। ऐसा वस्तु स्वरूप जानकर, वीतराग भाव धारण करना ही इष्ट प्रयोजनीय है।
जो न हो सके, वह कार्य करने की बुद्धि करना मूर्खता की बात है। अनादि से यह जीव जो नहीं हो सकता, उसे करने की बुद्धि करता है और जो हो सकता है, वह नहीं करता।
प्रश्न- हमें एक मात्र क्या करना चाहिए जिससे इस चतुर्गति दुःख से छुटकर मुक्ति की प्राप्ति हो? इसके समाधान में श्री गुरू तारण तरण देव आगे गाथा कहते हैं
गाथा-२४ न्यान सहाव सु समयं, अन्मोयं ममल न्यान सहकारं । न्यानं न्यान सरूवं, ममलं अन्मोय सिद्धि संपत्तं ॥
शब्दार्थ- (न्यान सहाव) ज्ञान स्वभाव, शुद्ध चैतन्य ज्योति, केवलज्ञान मात्र,(सुसमय) स्वसमय शुद्धात्मा-अपना निज स्वभाव (अन्मोय) आलम्बन करो, चिन्तवन करो,मनन करो, मंथन करो, अनुमोदना करो, लीन रहो (ममल) अनाद्यनिधन, शुद्ध (न्यान) ज्ञानमात्र (सहकार) स्वीकार करो, उस मय रहो (न्यानं न्यान सरूवं) ज्ञान, मात्र ज्ञान स्वरूप है, अपने स्वरूप का बार-बार ज्ञान ही ज्ञान करो, स्मरण ध्यान करो (ममलं) ममल स्वभाव, ध्रुव तत्व शुद्धात्मा में (अन्मोय) लीन होने (सिद्धि संपत्तं) सिद्धि की सम्पत्ति, अनन्त चतुष्टय, रत्नत्रय, पंच परमेष्ठी पद, पंच ज्ञान, परमानन्द, परमात्म पद, मुक्ति की प्राप्ति होगी।
विशेषार्थ- निज शुद्धात्मा, अपना शुद्ध स्वरूप, शुद्ध चैतन्यमयी ज्ञान स्वभावी है, इसी सत्स्वरूप की अनुमोदना करो, इसी ममल ज्ञान स्वभाव में लीन रहो। अपने शुद्ध ज्ञान स्वभाव का बार-बार ज्ञान ध्यान, स्मरण, चिन्तन, मनन करो, लीन रहो, शुद्ध ज्ञान स्वभाव में लीन होना सम्यक्चारित्र है। हे साधक ! ममल स्वभाव में लीन हो जाओ, इस सम्यक्चारित्र से ही सिद्धि की सम्पत्ति, मुक्ति की प्राप्ति होती है।
पूर्ण गुणों से अभेद ऐसे पूर्ण आत्म द्रव्य पर दृष्टि करने से, उसी के आलम्बन से पूर्णता प्रगट होती है। अपने ज्ञान स्वभाव, अखंड द्रव्य का आलम्बन, वही अखंड एक परम पारिणामिक भाव का आलम्बन है। ज्ञानी का जोर-पुरूषार्थ सदा अखंड शुद्ध द्रव्य, ममल स्वभाव पर ही रहता है; इसलिये सब छोड़कर
श्री कमलबत्तीसी जी एक शुद्धात्म तत्व, स्व समय, ज्ञान स्वभाव, परम पारिणामिक भाव के प्रति दृष्टि रखो, उसी का निरन्तर स्मरण, ध्यान, चिन्तन, मनन, अवलोकन करो, उसी में लीन रहो। इसी से सिद्धि की सम्पत्ति, अनन्त चतुष्टय, रत्नत्रय, परमेष्ठी पद,पंच ज्ञान, परमानन्द,परमात्म पद, मुक्ति की प्राप्ति होगी।
जिसने भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति की है, उसका पुरुषार्थ तो एक मात्र उसमें लीन होने का चलता है फिर उसे बाह्य का कुछ रूचता नहीं है। बोलना, देखना,खाना, पीना, छूटने लगता है। चैतन्य चमत्कार स्वरूप स्व संवेदन ही साधक का लक्षण है। जो अन्तर की गहराई में राग के एक कण, अंश को भी लाभ रूप मानता है. उसे आत्मा के दर्शन नहीं होते। निस्पृह आकिंचन, वीतराग होना कि मुझे कुछ नहीं चाहिये, मेरा कोई नहीं है, कुछ नहीं है । बस शुद्धात्मा, ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव एक आत्मा की लगन लगे, इसी का ज्ञान-ध्यान-स्मरण-आलम्बन और ममल स्वभाव में लीनता-यही मुक्तिमार्ग है। __सम्यक्दृष्टि का यह पुरूषार्थ सहज है, हठ पूर्वक नहीं है । शुद्ध दृष्टि प्रगट होने के बाद वह एक ओर पड़ी रहे, ऐसा नहीं होता, वह तो सहज-सतत् ज्ञान धारा चलती ही रहती है। शुद्ध दृष्टि परम तत्व में अविचल है। प्रतिकूलता के समूह आयें, सारे ब्रह्माण्ड में खलबली मच जाये तथापि ज्ञानी-अपने ज्ञान स्वभाव में अविचल स्वरूप में स्थित रहते हैं, ऐसी सहज दशा है।
जिस प्रकार अज्ञानी को - यह शरीर ही मैं हूं, यह शरीर मेरा है, यह मेरा नाम है, ऐसा सहज ही स्मरण-ज्ञान-ध्यान रहता है। उसे याद नहीं करना पड़ता, इसी प्रकार ज्ञानी को मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा-ज्ञायक ही हूँ, अन्य कुछ मेरा नहीं है, ऐसी सहज परिणति वर्तती रहती है, याद नहीं करना पड़ता, सहज पुरूषार्थ वर्तता रहता है। इसी साधना के सतत् अभ्यास से ज्ञान का अन्तर्मुहूर्त का स्थूल उपयोग छूटकर एक समय का सूक्ष्म उपयोग हो जाता है। वह ज्ञान अपने क्षेत्र में रहकर सर्वत्र पहुँच जाता है, लोकालोक को जान लेता है। भूत-वर्तमान-भविष्य की सर्व पर्यायों को क्रम पड़े बिना एक समय में वर्तमानवत् जानता है। स्व-पदार्थ तथा अनन्त पर पदार्थों की तीनों कालों की पर्यायों को एक समय में प्रत्यक्ष जानता है, ऐसा अचिन्त्य महिमामयी केवल ज्ञान प्रगट हो जाता है।
जब तक अपना ज्ञानमयी सत्स्वरूप-ममल स्वभाव ख्याल में न आये, उसका यथार्थ ज्ञान श्रद्धान न हो, तब तक अन्तर में मार्ग कहाँ से सूझे, और