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श्री कमलबत्तीसी जी
छोड़ दो। एक जीव का दूसरे जीव से कोई सम्बन्ध नहीं है। एक द्रव्य, दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, न कर सकता। एक पर्याय भी दूसरी पर्याय में सहकारी, सहायक नहीं है; फिर पर जीव, पर वस्तु शरीरादि से अपना (आत्मा का) क्या सम्बन्ध है ? मोक्ष अपने ही आत्मा का शुद्ध स्वभाव है और उसका उपाय भी केवल एक अपने शुद्ध आत्मा का ज्ञान-ध्यान करना है।
सिद्ध के समान अपने आत्मा का ध्यान करना ही इष्ट हितकारी है । भेदविज्ञान के प्रताप से ध्यान करने वाला आप ही अपने को परमात्मा रूप देखता है। जैसे दूध पानी मिले हों तो भी दूध, पानी से भिन्न अनुभव सिद्ध दिखता है। गर्म पानी में, पानी का अग्नि का स्वभाव अलग अनुभव में आता है व्यंजन में लवण व तरकारी का स्वाद अलग अनुभव में आता है, लाल पानी में पानी व लाल रंग का स्वभाव अलग दिखता है। तिलों में भूसी व तेल अलग दिखता है । धान्य में तुष और चावल अलग दिखता है। दाल में छिलका व दाल अलग दिखती है। वैसे ही ज्ञानी को अपनी आत्मा - रागादि भाव कर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म, शरीरादि नो कर्म से भिन्न दिखती है। जैसे ज्ञानी को अपना आत्मा सर्व पर भावों से, पर द्रव्यों से भिन्न दिखता है, वैसे ही अन्य संसारी प्रत्येक आत्मा सर्व पर भावों से भिन्न दिखते हैं।
सर्व सिद्ध व संसारी आत्मायें एक समान परम निर्मल वीतराग ज्ञानानन्द-स्वभावी दिखती है, इस दृष्टि को शुद्ध दृष्टि कहते हैं। इस दृष्टि से देखने वाले के अंतर में समभाव आ जाता है। राग-द्वेष-मोह का विकार मिट जाता है, पर से एकत्व-अपनत्व-कर्तृत्व छूट हो जाता है। इसी समभाव में एकाग्र होना ध्यान है, यही मुक्ति मार्ग है।
आत्मा ही परमात्मा है। परमात्मा कर्म मल रहित है, केवल स्वाधीन है। साध्य को सिद्ध करके शुद्ध हैं। सब द्रव्यों की सत्ता से निराला सत्ता का धारी है। वही अपना वीर्य धारी प्रभु है, वही अविनाशी है। परम पद में रहने वाला परमेष्ठी है, वही श्रेष्ठ आत्मा है, वही शुद्ध गुण रूपी ऐश्वर्य का धारी ईश्वर है, वही परम विजयी जिनेन्द्र है ।
आत्मा ही आनन्द का धाम है, उसमें अन्तर्मुख होने से ही सुख है। ऐसे अपने आत्म स्वभाव का जो विरोध करते हैं और संसारी व्यवहारजीवों के दया- दान-परोपकार आदि रागभाव को धर्म मानते हैं, वे संसार परिभ्रमण के दुःख का बीज बोते हैं।
अज्ञानी जीव अनादि काल की परिपाटी से संसार में कर्मोदय के साथ
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श्री कमलबत्तीसी जी परिणमन या व्यवहार करता हुआ, उसी का अपने को कर्ता तथा भोक्ता मान रहा है। यह मैंने अच्छा किया, यह बुरा किया, मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ। मैं इसका ऐसा कर सकता हूँ इसका वैसा कर सकता हूँ, इसको सुख दे सकता हूँ, इसको दुःख दे सकता हूँ, इसको मार सकता हूँ, इसको जिला सकता हूँ। ऐसे भ्रम-अज्ञानमयी जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पौद्गलिक कर्म वर्गणायें स्वयं कर्म रूप होकर बंध जाती हैं। जब यह जीव स्वयं अपने अशुद्ध भावों में परिणमन करता है, तब उस समय पूर्व में बंधा पौगलिक कर्म उदय में आकर उस अशुद्ध भाव का निमित्त होता है। इस तरह कर्म फल, भावों को व कर्मों के बंध को व कर्म के उदय को बहिरात्मा अपना मान लेता है।
निश्चय से आत्मा सर्व कर्म भावों से जुदा है। पुद्गल-शरीरादि से भिन्न है और सर्व पर जीवों से अत्यन्त भिन्न है। ऐसे अपने आत्मस्वभाव का श्रद्धान न करता हुआ जो आत्मा की, धर्म की विराधना करता है, कहता है, क्या आत्माआत्मा लगा रखा है । पहले शुभ भाव कर लो, कषाय मन्द कर लो, जीवों का उपकार दया, दानादि करो, इसी से कल्याण होगा। आत्मा, परमात्मा को किसने देखा है, कहाँ है ? आत्मा आत्मा रटने से पेट नहीं भरता है। पहले सब जीवों को सुखी करो। संसारी व्यवहार निभाओ, इस प्रकार अपने आत्म स्वभाव, धर्म का विरोध करता है, वह संसार भ्रमण के दुःख का बीज बोता है, जिससे चतुर्गति संसार में रूलना पड़ता है।
अज्ञानी बहिरात्मा को यही प्रतिभास भ्रम रहता है कि यह सब संयोगविकार भाव आदि मेरे हैं, यही सब करना मेरा धर्म है। यही संसार भ्रमण का बीज है। यह बीज संसार वृक्ष को बढ़ाता है और इससे बहिरात्मा अन्धा मोही होकर संसार वन में भटकता रहता है।
मुझे पर की चिन्ता का क्या प्रयोजन ? मेरा आत्मा सदैव अकेला है, ऐसा ज्ञानी जानते हैं। भूमिकानुसार शुभ भाव आये, परन्तु अन्तर में एकाकीपने की प्रतीतिरूप परिणति निरन्तर बनी रहती है। संसार में जीवों की भूमिकानुसार शुभ भाव करूणा आदि होने से सहज ही दया, दान, परोपकार रूप परिणमन चलता है, जो जीवों को संसार में भी सहयोगी हितकारी होता है। इस अपेक्षा, "परस्परोपग्रहो जीवानां" कहने में आता है ।
ज्ञानी सम्यक् दृष्टि, सद्गुरू- परमात्मा, अपनी भूमिका अनुसार चलते हैं, जिससे जिन जीवों की पात्रता होनहार होती है, उनका भला हो जाता है। इस
अपेक्षा निमित्त कहने में आता है, पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। सभी जीव अपनी