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श्री कमलबत्तीसी जी
सकता।
अन्धे, अन्धा ठेलिया-दोनों कप पडन्त । अन्धा-अन्धे को क्या मार्ग बतायेगा? संसार में अनादि काल से सब जीवों का, चार गतियों में भ्रमण हो रहा है। चारों गतियों में क्लेश व चिन्तायें होती हैं। शारीरिक व मानसिक दु:ख जीव को कर्मों के उदय से भोगना पड़ते हैं। जन्म और मरण का महान क्लेश तो चारों गतियों में है।
नरक गति में आगम के प्रमाण से तीव्र शारीरिक व मानसिक दु:ख जीव को बहुत काल सहने पड़ते हैं। वहाँ दिन-रातमार-धाड़ रहती है। नारकीपरस्परनाना प्रकार शरीर की अपृथक् विक्रिया से पशु रूप व शस्त्रादि बनाकर दुःख देते हैं और सहते हैं। तीसरे नरक तक संक्लेश परिणामों के धारी असुर कुमार देव भी उनको लड़ाकर क्लेश पहुँचाते हैं। वैक्रियक शरीर होता है, पारे के समान गलकर फिर बन जाता है। तीव्र भूख-प्यास और शीत-उष्ण की वेदना सहना पड़ती है और यह अज्ञान जनित-तीव्र कषाय द्वारा एक दूसरे जीव के प्रति विरोध के कारण ऐसी दुर्गति भोगना पड़ती है।
तिर्यंच गति में एकेन्द्रिय स्थावर-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि प्राणियों को पराधीन पने, निर्बलता से घोर कष्ट सहने पड़ते हैं। निगोदिया जीव का तो एक श्वास में अठारह बार जन्म-मरण होता है। द्वीन्द्रिय-लट आदि, तीन इन्द्रिय-चींटी खटमल आदि, चौइन्द्रिय-मक्खी पतंगे आदि यह तीनों विकलत्रय, महान कष्ट से जीवन बिताते हैं। मनुष्य और पशुओं के चलने-फिरने से इनका मरण होता रहता है । पंचेन्द्रिय पशु-थलचर गाय, भैंस आदि । जलचर- मगरमच्छ, कछुआ आदि । नभचर-कबूतर मोर काक आदि व सर्पादि पशु कितने कष्ट से जीवन बिताते हैं, सो प्रत्यक्ष-प्रगट है। मानवों के अत्याचार-शिकार आदि व्यसन से अनेक पशु मारे जाते हैं। भार वहन, गर्मी-सर्दी, भूख-प्यास परस्पर, बैर-विरोध से घोर कष्ट सहते हैं और यह सब कष्ट जीव के अज्ञान दशा में मोह और मायाचारी करने से भोगना पड़ते हैं। ___ मनुष्य गति में - इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, रोग-दारिद्र, अपमान आदि के घोर शारीरिक व मानसिक कष्ट, भय-चिन्ता, संकल्प-विकल्प आदि सहने पड़ते हैं, यह तो सब प्रत्यक्ष ही हैं। यहाँ अपने आत्म स्वरूप को न जानकर मुक्ति मार्ग पर न चलकर-अज्ञान दशा में परस्पर एक दूसरे जीव से बैरविरोध, मोह-राग-द्वेष-इष्ट मित्रता आदि द्वारा राग-द्वेष करके कर्म बंध करता
श्री कमलबत्तीसी जी है, जो एक दूसरे जीव का बैरानुबन्ध-अक्रमानुबन्ध-मोहानुबन्ध-प्रीतानुबन्ध द्वारा-जन्म-जन्मान्तर में भुगतना पड़ता है।
देव गति में मानसिक कष्ट अपार हैं। छोटे देव, बड़े देवों की विभूति देखकर कुढ़ते हैं। देवियों की आयु थोड़ी होती है। देवों की आयु बड़ी होती है इसलिए देवियों के वियोग का बड़ा कष्ट होता है। मरण निकट आने पर अज्ञानी देवों को बड़ा कष्ट होता है।
इस प्रकार चारों गतियों में दुःख ही दु:ख विशेष हैं। संसार में सबसे बड़ा दु:ख-आशा मोह और तृष्णा का है। इन्द्रियों के भोगों की लालसा-आहार, भय, मैथुन, परिग्रह (निद्रादि) चार संज्ञायें सब जीवों को होती हैं। इससे मिथ्यादृष्टि, संसाराशक्त प्राणियों को संसार भ्रमण में दु:ख ही दु:ख होता है, यहाँ जो उनकी अनुमोदना करते हैं, सहकार करते हैं, वे जीव ऐसी ही दुर्गति भोगते हैं।
विचारवान, विवेकी को अपनी आत्मा पर करूणा लाना चाहिये तथा यह भय लगना चाहिये कि हमारा आत्मा संसार के ऐसे क्लेशों को न सहे । यह आत्मा इस भव वन में न भ्रमे, भव सागर में न डूबे । जन्म, जरा, मरण के घोर क्लेश न सहे।
इसके लिये बुद्धिमान को इस दु:खमय संसार से उदासीन होकर मोक्ष पद पाने की लालसा- उत्कंठा-भावना करनी चाहिए। मोक्ष पद में सर्व सांसारिक कष्टों का अभाव है। राग-द्वेष, मोहादि विकारों का अभाव है। सब पाप-पुण्य कर्मों का अभाव है इसलिए उसे निर्वाण कहते हैं। वहाँ सब पर की शून्यता है। सत्ता एक शून्य विन्द- अपने आत्मस्वरूप की सत्ता है। परमानन्दमयी, दिव्य चेतना का शाश्वत प्रकाश है। निरन्तर अतीन्द्रिय आत्मीक आनन्द की षट् गुणी वृद्धि होती रहती है। जन्म-मरण से रहित हो जाता है।
सम्यकदृष्टि महात्मा-परम आनन्द व परम ज्ञान की विभूति से पूर्ण शिव पद को पाते हैं। जहाँ-जरा नहीं, रोग नहीं, भय नहीं, बाधा नहीं, शोक नहीं, मोह नहीं,शंकादि कुछ नहीं रहती, यह सब आत्मा के ज्ञान, श्रद्धान, आत्मानुभव से होता है।
सद्गुरू कहते हैं इसके लिये भेदविज्ञान की शक्ति से अपने आत्मा के स्वरूप का विचार करो, निर्णय करो, अनुभूति करो। सच्चा श्रद्धान करो तथा साथ में जिन-जिन शरीरादि-नो कर्म, मोह, राग-द्वेषादि भाव कर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म का संयोग है, उन-उनको आत्मा से भिन्न विचार करके उनका मोह