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श्री कमलबत्तीसी जी है परन्तु स्थायी रूप से स्थिर नहीं रह सकते, इससे फिर इस चक्कर में रहना पड़ता है।
प्रश्न- ऐसी दशा में अब क्या करें?
समाधान-प्रथम तो इस बात का, वस्तु स्वरूप का दृढ, अटल, श्रद्धान, विश्वास होना कि मैं ध्रुव तत्व, शुद्धात्मा हूँ। यह एक-एक समय की पर्याय, जगत का त्रिकालवी परिणमन क्रमबद्ध.निश्चित अटल है। जैसा केवलज्ञानी के ज्ञान में झलका है, वैसा ही सब जीवों व सब द्रव्यों की एक-एक पर्याय, एक-एक परमाणु, एक-एक समय का परिणमन हुआ है, हो रहा है और होगा, इससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा अनुभूति युत निर्णय स्वीकार होने पर अब अपने में स्वस्थ होश में अभय, अडोल, अकम्प, अटल, दृढ रहो। आनन्द परमानन्द में धर्म की जय-जय कार मचाओ। अपने इष्ट, परम इष्ट, सत्स्वरूप का आश्रय, आलम्बन लो, उसमें लीन रहो। निरन्तर यह ध्रुव तत्व शुद्धात्मा, टंकोत्कीर्ण अप्पा, सिद्ध स्वरूपी, परम ब्रह्म परमात्मा, शुद्ध चैतन्य ज्योति, ज्ञान मात्र मैं हूँ। इसका स्मरण, ध्यान रखो और इसी उमंग, उत्साह में रहो, पर पर्याय कर्मादि की तरफ मत देखो"न्यान सहावेन कम्म जिनियंच" बस हमेशा ज्ञानोपयोग, ज्ञान स्वभाव की साधना करो और अपना ज्ञान भाव जाग्रत रखो । स्व-पर का निर्णय करते रहो कि मैं ध्रुव,ध्रुव,ध्रुव, सिद्धोह, सिद्धरूपोहं, अहं ब्रह्मास्मि, सत्ता एक शून्य विन्द, पर की किसी की सत्ता, अस्तित्व ही मत मानो। द्रव्य दृष्टि ही रखो कि जैसा मैं सिद्ध, शुद्धात्मा-परमात्मा हूँ। ऐसे ही सब जीव आत्मा, छहों काय के जीव स्वभाव से सिद्ध, शुद्ध परमात्मा हैं तथा सब अपने में परिपूर्ण एवं स्वतंत्र हैं। एक जीव से दूसरे जीव का कोई सम्बन्ध ही नहीं है। इससे मोह, राग, द्वेष का विलय होगा, समभाव आयेगा तथा यह जो पौद्गलिक जगत शरीरादि दिखाई दे रहे हैं, यह सब द्रव्य दृष्टि से पुद्गल परमाणुओं का स्कंध रूप परिणमन अशुद्ध पर्याय है। जो सब क्षणभंगुर, नाशवान, असत् है। मूल में सब शुद्ध परमाणु मात्र हैं। इससे सारी भ्रम-भ्रांति मिट जायेगी और जो वर्तमान में कर्मोदय जन्य चक्र चल रहा है, इसमें सर्वज्ञ की सर्वज्ञता, त्रिकालवर्ती पर्याय का निर्णय करते हुए, अपने में निर्भय-निर्द्वद मस्त रहो, यही कर्मोदय को जीतना है।
पर पर्याय को देखना, कर्मों की सत्ता, अस्तित्व मानना, रागादि भावों में चकराना, उन्हें महत्व देना, डरना, भयभीत होना ही अज्ञान है, इसी से
श्री कमलबत्तीसी जी भयभीत भ्रमित रहते हो।
मैं धुव तत्व शुद्धात्मा, परम ब्रह्म परमात्मा हूँ। सिद्ध-मुक्त-शुद्ध हूँ और कुछ है ही नहीं, सत्ता एक शून्य विन्द, जगत का अस्तित्व मिटाओ।कर्म,कषाय, पर्याय आदि को मान्यता मत दो, कुछ मानो ही मत, बस मैं ही मैं हूँ। धुव-धुव-धुव, ममल स्वभाव, सिद्धोहं, अलखनिरंजन की हुंकार भरो। ब्रह्मास्मि का नारा लगाओ और अपनेपुरधाम में डटे रहो तो यह सब अपने आप गल जायेंगे, विला जायेंगे और तुम जीत गये। अपने ज्ञानानन्द, निजानन्द, सहजानन्द,ब्रह्मानन्द में लीन रहो। धर्म की जय-जयकार मचाओ, यही वर्तमान पुरुषार्थ और इनको जीतने का उपाय है।
प्रश्न-हम अपने व स्वभाव, मुक्त-सिद्ध स्वरूप का स्मरण ध्यान रखते हैं, इसी का चिन्तन-मनन-आराधन करते हैं। पर बीच में यह मन कर्मोदय जन्य भावों को लेकर आ जाता है, मोह माया में घुमाने लगता है, इससे अमित-भयभीतपना होने लगता है ऐसे में क्या करें, इसका क्या उपाय है?
समाधान - उपाय तो एक ही है कि अपने ध्रुव तत्व-ज्ञान स्वभाव में ज्ञान पूर्वक होश में रहो। अपने में दृढ़ता, अटलता रखो, अडोल अकंप स्वस्थ होश में रहो, इनसे किसी से डरो मत । भेदज्ञान, तत्व निर्णय, वस्तु स्वरूप द्वारा निराकरण सफाई करो और ध्रुव-धाम में स्वस्थ मस्त रहो। सम्यक्चारित्र में-जीव का पुरूषार्थ और कर्मोदय पर्याय, चारित्र मोहनीय का द्वन्द युद्ध सारा खेल है। अब जीव की जैसी पात्रता, पुरूषार्थ काम करता है, वैसे कर्म क्षय होते जाते हैं तथा जैसा कर्मोदय सत्ता होती है, वैसी ही जीव की पात्रतापुरूषार्थ काम करता है। ज्ञानी समता, शान्ति में ज्ञायक रहकर तमासा देखता है। तत् समय की योग्यतानुसार सारा परिणमन चलता है।
प्रश्न-पर इस दशा में बड़ी बैचेनी, घबराहट होती है,यह कुछ भी रुपता नहीं है, बस हमेशा निर्विकल्प-निजानन्द में रहें, ऐसी भावना होती है, इसका क्या उपाय है?
समाधान-बात तो सही है और भावना भी सही है। अगर यह छटपटाहट न हो तो वह ज्ञानी ही नहीं है परन्तु दोनों हाथ लड्डू नहीं खाये जाते। जिस भूमिका में बैठे हैं, जो पात्रता है, वैसा ही परिणमन चलेगा। अगर नहीं रुचता तोपुरूषार्थ करो, निग्रंथ, वीतरागी साधु बनो और ध्यान समाधि में निर्विकल्प