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श्री कमलबत्तीसी जी लिये क्या करें?
समाधान - पहले इस बात को पक्की नक्की करो। जब तक यह बात अनुभव प्रमाण पक्की न होगी, तब तक इस ज्ञान मार्ग पर चल ही नहीं सकते और न मुक्ति हो सकती। इसके लिये भेदज्ञान का निरन्तर अभ्यास करो। स्व-पर की भिन्नता भाषित हो । शरीर से भिन्न आत्मा की अनुभूति हो, निर्विकल्प दशा बने, इसके लिये ध्यान सामायिक का अभ्यास करो, बारह भावनाओं का चिन्तवन करो और अपने में पक्का दृढ़ श्रद्धान करो।।
इस साधना के साधक को, भेदज्ञान करने वाले को, पांच पाप का त्याग, पांच इन्द्रियों के विषय और मन का संयम आवश्यक है। बगैर इसके निर्विकल्प अनुभूति नहीं हो सकती। अपने में दृढ़ता अटलता लाने के लिये निम्न उपाय हैं -
(१) निज शुद्धात्मानुभूति पूर्वक भेदज्ञान द्वारा सम्यक्त्व की शुद्धि करना, अर्थात् यह पक्का निर्णय होना कि मुझे आत्मानुभूति सम्यग्दर्शन हो गया तथा तत्व निर्णय स्वीकार करना - जिस समय जिस जीव का जिस द्रव्य का जैसा जो कुछ होना है, वह अपनी तत् समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा, उसे कोई टाल फेर बदल सकता नहीं, इससे जीवन में समता शांति आती है। (२) वस्तु स्वरूप को अनुभव प्रमाण करना।
१. जीव- मैं और समस्त जीव-शुद्ध जीव अस्तिकाय, सिद्ध के समान, ध्रुव अविनाशी हैं। सब स्वतंत्र अपने में पूर्ण परमात्म स्वरूप हैं। सब चेतन सत्ता शक्ति धारी हैं।
२. पुद्गल (अजीव)-पुद्गल परमाणु भी शुद्ध अपने में स्वतंत्र सत्ता शक्तिधारी हैं।
विशेष-संयोगी परिणमन, अशुद्ध पर्याय अज्ञान जनित परिणाम है जो स्वयं ही परिणमित होता, गलता, विलाता, क्षय होता जा रहा है।
(३) संशय, विभ्रम, विमोह रहित सम्यक्ज्ञान होना।
मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ और एक-एक समय की पर्याय और जगत का त्रिकालवी परिणमन क्रमबद्ध निश्चित अटल है, मेरा किसी से कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसा अनुभूति युत निर्णय करना।
(४) सर्वज्ञ की सर्वज्ञता स्वीकार करना । जैसे केवलज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा हैं, वैसा ही मैं हूँ। अपने अनन्त चतुष्टय मयी केवलज्ञान सर्वज्ञ स्वभाव की
श्री कमलबत्तीसी जी सत्ता शक्ति का बोध होना तथा जैसा केवलज्ञान में झलका है, वैसा तीन लोक तीन काल के समस्त जीवादि द्रव्यों का त्रिकालवर्ती परिणमन क्रमबद्ध निश्चित अटल है। ऐसा बुद्धिपूर्वक अनुभव प्रमाण स्वीकार करने पर दृढ़ता अटलता आती है। ऐसा ज्ञानी हर समय हर दशा में निर्विकल्प निजानन्द में ज्ञायक रहता है।
अब निरन्तर अपना स्मरण, ध्यान रखो. हर दशा में हर समय स्वस्थ होश में प्रसन्न, मस्त आनन्द में रहो। अब है क्या, जब ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हो। केवलज्ञान स्वभावी, सिद्ध स्वरूपी ज्ञान मात्र.चैतन्य ज्योति हो और यह एक-एक समय का पूरे जगत का त्रिकालवी परिणमन क्रमबद्ध निश्चित अटल है तथा किसी से अपना कोई सम्बन्ध, लेना-देना मतलब नहीं है, पूर्ण स्वतंत्र मुक्त हो तो यह पर पर्याय को देखना बन्द करो । राग भाव खत्म करो। यह फिसलन कचाहट, भयभीतपना राग के कारण ही होता है। अपने में निस्पृह आकिंचन्य वीतरागी बनकर ब्रह्म स्वरूप, ममल स्वभाव में लीन रहो। इतना ज्ञान, श्रद्धान,भेदज्ञान तत्व निर्णय, वस्तु स्वरूप सब सामने प्रत्यक्ष अनुभव प्रमाण, जिनवाणी और जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा प्रमाण है, तो अब अपने में अभय, अटल,अडोल, अकम्प, स्वस्थ मस्त रहो, दृढता धरो। दृढ श्रद्धान विश्वास करो तो जय-जयकार मचे। सारे कर्म निर्जरित क्षय हो जायें और साधु पद से सिद्ध पद की प्राप्ति हो।
सद्गुरू कहते हैं कि जीव स्वयं के द्वारा शुद्ध स्वरूप का अनुभव करने में समर्थ है। निज स्वरूप का ज्ञान नहीं था, तब तक, जो जीव अज्ञानता वश विकारी भावों का वेदन करता था, वह स्वयं ही स्वयं के द्वारा निज शुद्धात्म तत्व का अनुभव करने में समर्थ है । अन्तर की गहराई से रूचि और लगन होना चाहिये। जो आत्मा को लक्ष्य कर छह माह तक आत्म धुन लगे तो आत्मा प्रत्यक्ष सामने नाचने लगे।
जिन्हें आत्मा को समझने के लिये अन्तर में सच्ची धुन और छटपटाहट लगे, उन्हें अन्तर मार्ग, निज आत्मानुभूति हुये बिना न रहे। स्वयं के पुरूषार्थ से मुक्ति मार्ग पर चलकर मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं। आत्मा ज्ञान और आनन्द स्वरूप है। उसमें स्वयं के द्वारा एकता करे व विभाव से पृथकता करे, यही मोक्ष का मार्ग है।
इसमें ज्यादा विकल्प, संशय, शल्य करने की आवश्यकता नहीं है। यह तो अपना स्वयं का स्वरूप है, जो अनाद्यनिधन शाश्वत, सिद्ध स्वरूपी है।
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