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श्री कमलबत्तीसी जी
गाथा-२० विमलं च विमल रूवं, न्यानं विन्यान न्यान सहकार । जिन उत्तं जिन वयनं, जिन सहकारेन मुक्ति गमनं च ॥
शब्दार्थ - (विमलं) सारे कर्म मलों से रहित विमल (च) और (विमल रूवं) विमल स्वरूपी निज आत्मा है (न्यानं विन्यान) भेद विज्ञान के द्वारा (न्यान सहकार) ज्ञान में स्वीकार किया, ऐसा अनुभव में आया (जिन उत्तं) जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है (जिन वयन) जिनवाणी में आया है (जिन सहकारेन) अपने आत्म स्वरूप को स्वीकार करना ही (मुक्ति गमनं च) मुक्ति मार्ग है।
विशेषार्थ- निज शुद्धात्मा चैतन्य मयी विमल स्वरूपी अर्थात् सर्व कर्म मलादि से रहित परिपूर्ण ब्रह्म स्वरूप है। ऐसा भेदज्ञान द्वारा अपने ज्ञान से स्वीकार किया है तथा जिनेन्द्र परमात्मा ने भी कहा है, जिनवाणी में भी आया है कि आत्मा - शुद्धात्मा-परमात्मा है। सारे कर्म मलादि शरीरादि संयोग से रहित एक अखंड अविनाशी,चेतन तत्व भगवान आत्मा है। ऐसे अपने आत्म स्वरूप को स्वीकार करना, श्रद्धान, ज्ञान सहित अपने स्वभाव में रहना ही मुक्ति मार्ग है।
जिनेन्द्र भगवान के वचन सत्य हैं, ध्रुव हैं, प्रमाण हैं तो क्या यह मात्र कहने के लिये हैं, या ऐसा रहने के लिये हैं ? मुक्ति का मार्ग है - सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : फिर अब इस बात को स्वीकार करने में क्या कठिनाई है, स्वयं ने भेदविज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति युत ज्ञान से इस बात को स्वीकार किया है या नहीं? कि मैं आत्मा - शुद्धात्मा - परमात्मा हूँ, फिर इसमें स्वच्छन्दता कैसी? सत्य को स्वीकार करना, शूरवीर नरों का काम है। सत्य मार्ग पर चलना महावीर की बात है।
सारे कर्म मलादि शरीरादि संयोग और ज्ञान स्वरूपी आत्मा को लक्षण भेद से सर्वथा भिन्न करने पर ही सर्वज्ञ स्वभावी शुद्ध जीव लक्ष्य में आता है। जैसे जो आत्मा पूर्ण वीतरागी होते हैं, वही सर्वज्ञ परमात्मा होते हैं। वैसे ही जो सर्व प्रकार कर्म मलादि रागादि भावों से ज्ञायक आत्मा की भिन्नता समझें, वे ही सर्वज्ञ स्वभावी आत्मा की पहिचान अनुभव कर सकते हैं।
स्व- पर प्रकाश का पंज प्रभु तो शुद्ध ही है। पर जो रागादि से भिन्न होकर उसकी उपासना करे, उसी के लिये वह शुद्ध है। सर्व प्रकार से भेदज्ञान में
श्री कमलबत्तीसी जी प्रवीण होना ही मुक्ति मार्ग है। द्रव्य तो त्रिकाली और निरावरण है, पर वर्तमान पर्याय में रागादि को मिश्रित कर रखा है। भेदज्ञान की प्रवीणता से भिन्न होता है। अन्य किसी उपाय-क्रिया-कर्म से भिन्न नहीं होता। जो आत्म स्वभाव का अनादर कर पर वस्तु से सुख पाना मानता है, बाह्य क्रिया से मुक्ति होना मानता है, वह जीव घोर मिथ्यादृष्टि पापी है । अन्तर में महान चैतन्य निधि विराजमान है, उसका तो आदर नहीं करता और जड़ में सुख मानता है। ऐसे जीव को भले ही बाह्य में सारी अनुकूलता लक्ष्मी के ढेर लगे हों, परन्तु भगवान उसे पापी कहते हैं।
जिसको द्रव्य दृष्टि यथार्थ प्रगट होती है, उसे दृष्टि के जोर में अकेला ज्ञायक, ध्रुव-धुव चैतन्य आत्मा ही भासता है। शरीरादि कुछ भाषित नहीं होते। भेदज्ञान की परिणति ऐसी दृढ़ हो जाती है कि स्वप्न में भी आत्मा शरीर से भिन्न भासता है। मैं एक ज्ञान मात्र चेतन तत्व भगवान आत्मा हूँ। मेरा यह स्वभाव अनादि काल से है और अनन्त काल तक यह मेरा स्वभाव रहेगा। न कभी चलायमान विकारी हुआ और न कभी चलायमान विकारी होगा। यह ज्ञान स्वभाव मेरा परकृत नहीं है, किन्तु स्वयं सिद्ध है। इसमें किसी दूसरे पदार्थ का प्रवेश नहीं है अथवा यह दूसरे प्रकार के पदार्थ के रूप में बदल भी नहीं सकता। इस प्रकार मेरे स्वरूप में आकस्मिक रूप से आने वाला कुछ भी नहीं है। तब ज्ञानी को भय भी किसी प्रकार से नहीं है।
ज्ञानी सम्यक्दृष्टि जीव सदैव निर्भय होकर अपने सहज स्वरूप ज्ञानानन्द में स्वयमेव रमण करता है, सदा आनन्दित रहता है। जो स्व संवेदन प्रत्यक्ष से अपने स्वरूप का दर्शन कर रहा है और उसमें नि:शंक
वह जानता है कि मैं ज्ञान स्वभावी व अचल पदार्थ।मेरा निजका ज्ञान छिनने वाला नहीं है। वह बिगड़ने वाला भी नहीं है और न नाश होने वाला है। मैं विमल ममल स्वभावी आत्मा-शवात्मा-परमात्मा है। इसी का लक्ष्य, आश्रय करने, इसी में बढ़ अटल रहने से कर्मक्षय होते हैं। पर्याय में शुद्धि आती है और सिद्ध दशा प्रगट होती है। यही जिनेन्द्र कथित मुक्ति मार्ग है, इसमें स्वच्छंदता नहीं है।
जिसे इस बात का दृढ श्रद्धान-ज्ञान अटल विश्वास नहीं है वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है, उसे अभी मुक्ति मार्ग पर चलने का अधिकार ही नहीं है।
प्रश्न- हमें यह सब सुनकर तो लगता है कि मैं आत्मा-शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, पर अभी ऐसा दृढ़ अटल श्रद्धान विश्वास नहीं है इसके