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श्री कमलबत्तीसी जी
इसकी स्वीकारता होने पर आगे का मार्ग तो स्वयमेव बनता है। सब सहजता सरलता से होने लगता है। प्रथम भूमिका से अपने आप ऊपर उठने के भाव और तद्प आचरण होने लगता है।
प्रश्न - इसमें फिर अपने आप भाव और कैसा आचरण होने लगता है? इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैं -
गाथा-२१ षटुकाई जीवानं, क्रिपा सहकार विमल भावेन । सत्वं जीव समभाव, क्रिपा सह विमल कलिस्ट जीवानं ॥
शब्दार्थ-(षटुकाई) छहकाय, पांच स्थावर (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति) और त्रस (दो इन्द्रिय से पांच इन्द्रिय तक) (जीवान) जीवों पर, समस्त जीव (क्रिपा) दया भाव, करूणा (सहकार) सहयोग, साथ देना, स्वीकार (विमल भावेन) विमल भाव सहित,शुद्ध आत्म स्वरूप (सत्वं जीव) समस्त जीव, प्राणी मात्र (समभावं) समभाव, समता भाव,प्रेम, मैत्री (क्रिपा) दया भाव, करूणा (सह विमल) निर्मल भाव सहित सहयोग, साथ देना (कलिस्ट जीवानं ) दु:खी जीवों पर, बड़े कष्ट में रहने वाले जीवों पर।
विशेषार्थ - सम्यक्दृष्टि ज्ञानी आत्मा, अपने ही समान छहों काय के जीवों को भगवान आत्मा सिद्ध स्वरूप देखता है। सब के प्रति मैत्री प्रमोद रखता है। सब जीवों के प्रति सम भाव रहता है। कोई ऊँच-नीच का भेद भाव नहीं रखता, क्योंकि उसकी दृष्टि द्रव्य स्वभाव, विमल ममल स्वभाव पर रहती है। दीन-दुःखी जीवों पर करूणा होती है। किसी जीव को कोई कष्ट न हो, ऐसी भावना रहती है। जो दु:खी जीव हैं, कष्ट में हैं, उनके कष्ट दूर हों, उनका हर प्रकार से सहयोग करता है।
सम्यक्दृष्टि जीव को सर्व ही सिद्ध व संसारी आत्मायें- एक समान परम निर्मल विमल स्वरूपी वीतराग ज्ञानानन्दमय दिखती हैं। इस दृष्टि से देखने, अभ्यास करने वालों के भावों में सम भाव का साम्राज्य हो जाता है। राग-द्वेष, मोह का विकार मिट जाता है। इसी सम भाव में एकाग्र होना ही ध्यान है।
संसारी आत्माओं में कर्मों का संयोग व उदय होने के कारण विभाव पर्यायें व अशुद्ध पर्याय होती हैं परन्तु उसी समय अन्तरात्मा व परमात्मा की पर्यायें शक्ति रूप से अप्रगट हैं।
श्री कमलबत्तीसी जी जिसमें अनादि काल से चार गतियों, चौरासी लाख योनियों में जीव का संसरण या भ्रमण हो रहा है, उसको संसार कहते हैं। इसमें छह काय के जीव रहते हैं। पाँच स्थावर (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति) यह एक इन्द्रिय वाले होते हैं। शेष दो इन्द्रिय से लेकर पाँच इन्द्रिय तक के जीव त्रस कहलाते हैं। चारों गतियों में क्लेशव चिन्तायें रहती हैं। शारीरिक व मानसिक दु:ख जीव को कर्मों के उदय से भोगना पड़ते हैं, जन्म-मरण का महान क्लेश तो चारों गतियों में है।
मिथ्यादृष्टि संसारासक्त प्राणियों को संसार भ्रमण में दु:ख ही दुःख होता है। जब कभी कोई इच्छा पुण्य के उदय से तृप्त हो जाती है तब कुछ देर सुख-सा झलकता है, फिर तृष्णा का दु:ख अधिक हो जाता है। चिरकाल तक तिर्यंच गति में महान वेदनाओं से आकुल हो, भ्रमण करके मनुष्य गति में जन्म लेकर पाप के फल से यह प्राणी दु:खों को पाता है।
इस तरह अनादि काल से यह जीव सर्वज्ञ भगवान के कहे हुये धर्म को न पाकर, भयानक संसार सागर में गोते लगाया करता है। संसार भ्रमण से उदासीन मोक्ष प्रेमी, सम्यग्दृष्टि जीवों को अपनी आत्मा और सर्व आत्माओं पर करूणा आती है। उन्हें लगता है कि कोई आत्मा संसार क्लेशों को सहन न करे। यह आत्मा भव-भव में न भ्रमे, भव सागर में न डूबे, जन्म, जरा, मरण के घोर क्लेशन सहे। इस दु:ख रूपी रोग के विनाश के लिये, धर्म रूपी अमृत को सदा पीना चाहिये। जिसके पीने से जीवों को सदा ही परमानन्द प्राप्त होगा। इसके लिये उनको जैसे बनता है जीवों का कष्ट दूर करने का प्रयास करते हैं।
निश्चय नय से ज्ञानी जब देखता है, तब उसे अपना आत्मा परम शुद्ध दिखता है। वैसे ही विश्व भर में भरे सूक्ष्म व बादर शरीरधारी आत्मायें भी परम शुद्ध ज्ञानानुभूति में आती हैं। इस दृष्टि से छहों काय के जीवों के प्रति समभाव, मैत्री, करूणा, प्रमोद भाव रहता है। जब सब जीवों को समान देख लिया, तब किसके साथ मैत्री करे, किसके साथ कलह करे । राग-द्वेष तो नाना भेद रूप दृष्टि में होता है। सर्व को शुद्ध एकाकार देख लिया तब शत्रुमित्र की कल्पना ही न रही, यही समभाव चारित्र है । समभाव ही धर्म है, समभाव ही परम तत्व है।
जो सुबुद्धि, सर्व प्राणी मात्र से समभाव रखता है, वह ममता से छूट जाता है, वही अविनाशी पद को पाता है।