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श्री कमलबत्तीसी जी
में रहने से सब कर्म क्षय हो जायेंगे और इसकी रूचि कर, लगन लगा, यही अपना इष्ट है।
तू संसार के प्रसंगों को याद किया करता है। अरे ! तू स्वयं पूर्णानन्द का नाथ अनन्त गुण रत्नों से भरा हुआ, महाप्रभु सदा ऐसा का ऐसा ही रहता है। इसे याद कर अपने में लगन लगा, अपना स्मरण ध्यान कर । स्त्री- पुत्र आदि को इस प्रकार प्रसन्न रखा था और इस प्रकार के भोग-विलास में मौज मजा किया था, ऐसा याद करता है। यह सब दुःख के कारण हैं, अनिष्टकारी हैं। सुख का कारण तो अपना शुद्ध स्वभाव ही है। वह तो सदा ही शुद्ध रूप से ऐसा का ऐसा ही विद्यमान है। चारों गतियों में भ्रमण करने पर भी अपना स्वभाव सुख सागर से भरा चैतन्य पिंड चिदानन्द भगवान तो ऐसा का ऐसा ही रहा है। इसे याद कर, इसका स्मरण कर, यही सुख शांति और मुक्ति को देने वाला है।
चैतन्य मूर्ति, मुक्त स्वरूप, अनन्त गुण का धनी यही अपना इष्ट है। इस मुक्त स्वरूप, सिद्ध स्वरूप का अन्तर ध्यान करने से पर्याय में मुक्त स्वरूप प्रगट होता है। मुक्त स्वरूप बाह्य में प्रगट नहीं होता बल्कि अन्तर में जो पूर्णानन्द स्वरूप है, उसे दृष्टि में लेकर उसका ध्यान कर, अन्तर में स्थित ममल स्वभाव में लीन होने से पर्याय में मुक्ति प्रगट होती है। आत्मा में अनन्त गुण भरे हैं। एक-एक गुण में अनन्त गुणों का रूप है। एक-एक गुण में अनन्त पर्याय प्रगट करने की शक्ति है। भगवान आत्मा अनन्त गुणों की अद्भुत शक्तियों से युक्त है। इसमें एक बार दृष्टि दे तो तुझे संतोष मिलेगा, आनन्द मिलेगा। पुण्य पाप के परिणाम में दृष्टि देने से तो दुःख का वेदन होता है, यही अनिष्टकारी है ।
परिणाम को परिणाम द्वारा देख ऐसा नहीं है; किन्तु परिणाम द्वारा ध्रुव को देख । पर्याय से पर को तो न देख, पर्याय को भी मत देख, परंतु जो भगवान आत्मा पूर्णानन्द का नाथ प्रभु मुक्तानन्दन है, उसे पर्याय में देख, उसे तू निहार, तेरी दृष्टि वहाँ लगा। अन्तर में प्रभु परमेश्वर स्वयं विराजते हैं, उन्हें एक बार छह माह तो खोज, यह क्या है ? अन्य चंचलता और चपलता छोड़कर अन्तर में जो भगवान पूर्णानन्द का नाथ, इष्ट, परम इष्ट, सिद्ध सदृश प्रभु है, उसे छह मास तो शोध । वास्तव में वह एक समय में प्राप्त होता है परंतु उपयोग असंख्य समय का होने से अन्तर्मुहूर्त में प्राप्त होता है, पर से विरक्तता और विभाव की तुच्छता भाषित हुये बिना, अन्तर में नहीं
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श्री कमलबत्तीसी जी
उतर सकते।
हम स्त्री, पुत्र, पैसा आदि से समृद्ध हुये हैं, इन्हें इष्ट मानने वाले मूढ़ हैं। चैतन्य स्वभाव की महिमा तो अचिन्त्य है। अन्तर में ऐसी महिमा आये तो स्व की ओर पुरुषार्थ उमड़े । वास्तव में तो पर्याय परलक्षी है। उसे स्वलक्षी करना, इसमें महान पुरूषार्थ है। पर्याय को स्वलक्ष्य में ढालना, यह अनन्त पुरुषार्थ है, महान और अपूर्व पुरूषार्थ है । यह पर्याय जो स्व सम्मुख ढली है, जिससे उसे अन्तर्लीन कहा है किन्तु उससे पर्याय कोई ध्रुव में मिल नहीं जाती । ध्रुव के आश्रय से द्रव्य दृष्टि प्रगट हुई फिर चारित्र की शुद्धि भी पर्याय के आश्रय से नहीं होती। त्रिकाली अन्त: तत्व जो ध्रुव स्वभाव, ममल स्वभाव है, उसके आश्रय, उसकी इष्टता से ही चारित्र की शुद्धि होती है यह वस्तु स्थिति है, जिनेन्द्र भगवान के वचन हैं।
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सम्यक् दृष्टि जीव अपने स्वरूप को जानकर उसकी प्रतीति, स्वरूपाचरण कर ऐसा अनुभव करता है कि मैं तो चैतन्य ज्योति मात्र हूँ । शुद्ध-बुद्ध, चैतन्य घन, स्वयं ज्योति सुखधाम मैं हूँ । चैतन्य, ज्ञानदर्शन मात्र ज्योति स्वरूप ज्ञायक हूँ। मैं रागादि रूप बिल्कुल नहीं हूँ, इनका मेरे में अत्यन्त अभाव है। ऐसी दृष्टि होने से सारे अनिष्टों से मुक्त हो जाता है और ममल स्वभाव में लीन होने पर कर्म क्षय हो जाते हैं फिर कर्मोदय जन्य इष्ट, अनिष्ट की कल्पना छूट जाती है।
भगवान सर्वज्ञ कहते हैं कि आत्मा में शरीर, संसार या रागादि कर्म बंध हैं ही नहीं; सर्वप्रथम ऐसा निर्णय कर यह आत्मा जिनवर है, तीर्थंकर है, केवलज्ञान स्वभावी है, यह आत्मा अमृत कुंभ है, इसी में एकाग्र होने से पर्याय में जिनवर के दर्शन होते हैं। परमात्म स्वरूप प्रगट होता है। इसके अतिरिक्त जो ऐसा मानते हैं कि प्रथम शुभ क्रिया कर, कषाय मन्द कर, संयम तप कर, तब आत्मा का अनुभव होगा, वे जीव, देव गुरू शास्त्र का अनादर करते हैं।
हम सर्वज्ञ हैं और तेरे गर्भ में भी सर्वज्ञ पद विद्यमान है। स्वभाव में विद्यमान सर्वज्ञ पद का आदर हुआ, उसमें अनन्त सर्वज्ञ अरिहन्त परमात्माओं का आदर हो गया। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, कर ही नहीं सकता, आत्मा के अनन्त गुणों की पर्याय में एक पर्याय को दूसरी पर्याय की सहायता भी नहीं है। पर्याय, पर्याय की योग्यता से षट्कारक रूप से स्वतंत्र परिणमित होती है। यह जैन दर्शन के हार्द की, स्वतंत्रता की मूल बात है ।