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श्री कमलबत्तीसी जी देखना ही नहीं है। जब एक-एक समय का, एक-एक परमाणु का, एक-एक पर्याय का और जगत का त्रिकालवी परिणमन क्रमबद्ध निश्चित अटल है तो अब अपने में भी इतने ही दृढ, अटल, अभय, अडोल, अकम्प, स्वस्थ मस्त रहो, यह वेदक सम्यक्त्व अप्रत्याख्यानावरण कषाय कर्मोदय की कोई परवाह नहीं करना ही इनको जीतना है। मैं आत्मा, शुद्धात्मा, परमात्मा हूँ, सिद्ध स्वरूपी, ममल स्वभावी चिदानन्द चैतन्य ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ, इसकी सिंह गर्जना करो। सिद्धोहं, सिद्धरूपोहं का जयघोष करो और अपने आत्मीक आनन्द में आनन्दित रहो। अब किसी पर्याय से डरते झपकते क्यों हो? कोई अपेक्षा-उपेक्षा मत रखो, अच्छा बुरा मत मानो। अपने में निस्पृह, निर्द्वन्द मस्त रहो तभी जीतोगे, जय-जयकार मचेगी।
प्रश्न- यह कर्मोदय को देखने पर इष्ट - अनिष्टपना लगता है, भयभीतपना भी आ जाता है, इन कमों से कैसे छुटकारा होये, इसका उपाय बताइये? इसके समाधान में श्री गुरूदेव आगे गाथा कहते हैं -
गाथा-१७ जिन दिस्टि इस्टि संसुद्ध,इस्ट संजोय तिक्त अनिस्टं। इस्टं च इस्ट रूवं, ममल सहावेन कम्म संषिपनं ॥
शब्दार्थ - (जिन दिस्टि) अपने जिन स्वभाव पर दृष्टि रखो (इस्टि) यही इस्ट है (संसुद्ध) स्वयं का शुद्धात्म स्वरूप (इस्ट) इस्ट को (संजोय) संजोने. साधना करने, लीन रहने (तिक्त अनिस्ट) कर्मोदय जन्य मोह, राग-द्वेषादि भाव सब अनिष्ट छूट जायेंगे (इस्ट) इष्ट, श्रेष्ठ (च) और (इस्ट रूवं) अपना स्वरूपही इष्ट है (ममल सहावेन) ममल स्वभाव में लीन रहने, ममल स्वभाव के द्वारा (कम्म संषिपन) सारे कर्म क्षय हो जायेंगे।
विशेषार्थ- हे आत्मन् ! सदैव अपने जिन स्वभाव पर दृष्टि रखो, वीतराग मयी निज शुद्धात्म स्वरूप ही अपना इष्ट है। अपने इष्ट सत्स्वरूप को संजोने, साधना करने से मोह-रागादि समस्त अनिष्टकारी भाव छूट जायेंगे तथा श्रेष्ठ इष्ट और प्रयोजनीय चैतन्यमयी शुद्ध स्वरूप ममल स्वभाव में लीन होने से सारे दुखदायी कर्म भी क्षय हो जायेंगे। __ अपना जिन स्वभाव भगवान पूर्णानन्द का नाथ विराजमान है, यही सर्वोत्कृष्ट है। स्वयं का सर्वोत्कृष्ट भगवान आत्मा, सिद्ध की पर्याय से
श्री कमलबत्तीसी जी भी सर्वोत्कृष्ट है क्योंकि सिद्ध दशा तो एक समय की पर्याय है और आत्मा तो अनन्त सिद्ध पर्याय जिसमें से प्रगट होती हैं ऐसा द्रव्य है,यह सर्वोत्कृष्ट है । अपरिमित, अमर्यादित, ज्ञान-दर्शन आदि अनन्त शक्तियों का पिंड सर्वोत्कृष्ट आत्मा है। सर्वोत्कृष्ट वस्तु को जो दृष्टि स्वीकार करे, वह शुद्ध दृष्टि है।
जो छूट जाती है, वह तो तुच्छ वस्तु है। उसे छोड़ते तुझे डर क्यों लगता है? ये तो तुच्छ वस्तुयें हैं। जो आश्चर्यकारी सर्वोत्कृष्ट प्रभु है उसका आश्रय ले तो तुझे आनन्द झरेगा। चिन्तामणि रत्न कहो, कल्पवृक्ष कहो, कामधेनू कहो, वह आत्मा स्वयं ही है। जब-जब उसका आश्रय करेगा, तब-तब आनन्द का आस्वादन करेगा।
संयोग का लक्ष्य छोड़ दे और निर्विकल्प एक रूप वस्तु है उसका आश्रय ले। गुण-गुणी का भी लक्ष्य छोड़कर एक रूप गुणी की दृष्टि कर, तुझे समता होगी, शांति होगी, आनन्द मिलेगा, सब अनिष्ट पर्याय, दु:ख का नाश होगा, कर्म क्षय होंगे। एक चैतन्य वस्तु ध्रुव है, उसमें दृष्टि देने से तुझे मुक्ति का मार्ग प्रगट होगा।
बाहर पर में, पर्याय में उत्साहित मत हो, यह सब तो क्षणभंगुर नाशवान है और अनन्त बार मिला है। बाहर में जो इष्ट और सर्वस्व माना है, वहाँ से दृष्टि पलट कर ऐसा मान कि अनन्त गुण का पिंड आत्मा, यही इष्ट, परम इष्ट, सर्वोत्कृष्ट मेरा सर्वस्व है। भगवान पूर्णानन्द का नाथ, चैतन्य की जगमग ज्योति है, उस रूप परिणमन हो, अपने ममल स्वभाव में लीन रहे तो सब कर्म क्षय हो जायेंगे।
पर पर्याय राग भाव मेरा है, कर्म बन्धोदय मेरा है, ऐसी पकड़ किये है इसलिये स्वयं जकड़ा है, पकड़ा है परंतु चैतन्य स्वरूप आत्मा की पकड़ करे तो संसार रूपी मगरमच्छ के मुँह में से छूट सकता है। प्रभु! तुझमें शक्ति है, तू पर से भिन्न हो सकता है। पर से भेदज्ञान कर संसार रूपी मगरमच्छ कर्मादिक के मुख में से छूट सकता है।
यह आत्मा प्रत्यक्ष है। जैसे सामने कोई चीज प्रत्यक्ष होती है, वैसे ही यह आत्मा प्रत्यक्ष अनुभव गोचर है। सद्गुरू कहते हैं, इसे देख, यही इष्ट है। यह शरीर, कुटुम्ब, धन, वैभव, मकान आदि देखता है। यह सब तो तेरे से अत्यन्त भिन्न पर द्रव्य हैं। इससे भिन्न यह आत्मा, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है। इसे देखने से मोह, रागादि, अनिष्ट अपने आप छूट जायेंगे और ममल स्वभाव