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श्री कमलबत्तीसी जी
आत्मा के ध्यान के लिये एकांत स्थान में ठहरकर शरीर को निश्चल रखना होगा, वचनों का त्याग करना होगा, जगत के प्राणियों से वार्तालाप छोड़ना होगा, पाठ पढ़ना छोड़ना होगा, जप करना छोड़ना होगा, बिल्कुल मौन से रहना होगा, मन का चिन्तवन छोड़ना होगा। यहाँ तक कि आत्मा के गुणों का विचार भी छोड़ना होगा, जब उपयोग मन, वचन, काय से हटकर केवल अपने ही शुद्धात्मा के भीतर श्रुतज्ञान के बल से या शुद्ध निश्चयनय के प्रताप से जमेगा, तब ही मोक्ष का साधन बनेगा, तब ही स्वानुभव होगा, तब ही वीतरागता होगी, तब ही आत्मा सर्व कर्म मल से रहित होगा।
ध्यान के समय मन के भीतर बहुत से विचार आ जाते हैं। उनमें जो गृहस्थ सम्बंधी बातों के विचार हैं। मोह, माया, राग-द्वेष के विचार हैं, वे महान बाधक हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह की चिन्ता ध्यान में हानिकारक है इसीलिए साधु पांचों पापों को पूर्णपने त्याग कर देते हैं। ध्यान के समय शुभ कार्यों के विचार भी बाधक हैं। यदि कोई व्यवहार चारित्र को नहीं पाले, लौकिक व्यवहार में लगा रहे तो आत्मा के भीतर उपयोग स्थिर नहीं हो सकेगा। इसी कारण सर्व परिग्रह के त्यागी निर्ग्रन्थ मुनि ही उत्तम धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान कर सकते हैं।
प्रश्न- आप आत्मा का ही ज्ञान ध्यान करने का पूरा जोर देते हैं और यहाँ व्यवहार चारित्र की भी बात करते हैं, यह क्या बात है ?
समाधान - निश्चय से शुद्धात्मा का भाव ही मोक्ष का मार्ग है। शुद्धोपयोग की भावना, शुद्ध तत्व का अनुभव नहीं करते हुए, जो कुछ व्यवहार चारित्र है वह मोक्षमार्ग नहीं, संसार मार्ग है, पुण्यबंध का कारण है। मिथ्यादृष्टि आत्म ज्ञान शून्य बहिरात्मा बाहर से मुनि भेष धर कर पंच महाव्रत पाले, बारह तप तपे, इन्द्रिय या प्राणी संयम को साधे, अट्ठाईस मूल गुण का पालन करे तो भी वह कर्मों से मुक्ति नहीं पा सकता। ऐसा द्रव्य लिंगी साधु पुण्य बांध कर नौवें ग्रैवेयक तक जाकर अहमिन्द्र हो सकता है परन्तु संसार से पार करने वाले सम्यक्दर्शन के बिना अनन्त संसार में ही भ्रमण करता है । व्यवहार चारित्र को निमित्त मात्र, बाहरी आलम्बन मात्र मानकर व निश्चय चारित्र को उपादान कारण मानकर जो स्वानुभव का अभ्यास करे तो निर्वाण का मार्ग बनता है।
जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि जो जीव आत्मज्ञान के बिना व्रत, संयम, तप, शील का पालन करता है, वह मिथ्यादृष्टि अज्ञानी ही रहता है। तत्व की
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श्री कमलबत्तीसी जी
श्रद्धा रखता हुआ कितना भी शास्त्र पढ़े, उसका पढ़ना गुणकारी नहीं है। जो शरीरादि की ममता रहित हो, मान कषाय से रहित हो, आत्मा को आत्मा में लीन रखे वही भाव लिंगी साधु होता है।
आत्मज्ञान, आत्मध्यान, निश्चयचारित्र का मार्ग सूक्ष्म है, वह निकट भव्य जीव की पकड़ में आता है। व्यवहार चारित्र का मार्ग स्थूल है, वह सहज में पकड़ में आ जाता है। व्यवहार चारित्र साधन है, साध्य नहीं है। भूल यह हो जाती है कि साध्य का लक्ष्य न होने से साधन को ही साध्य मान लिया जाता है, यही जीव आत्मा के साथ बहुत बड़ा धोखा है। इससे सावधान सतर्क रहते हुए साधना करना, यही अपने लिये हितकारी है।
जैसा वस्तु स्वरूप जिनवाणी में जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है, वैसा ही सत्श्रद्धान कर तद्रूप आचरण करने से सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। सर्वज्ञ की सर्वज्ञता स्वीकार कर लेना ही मिथ्यात्व, कषाय, कर्मों को जीतना है। जब केवलज्ञान में अपना स्वरूप "शुद्धं प्रकाशं शुद्धात्म तत्वं" अनन्त चतुष्टय धारी, रत्नत्रयमयी स्वयं आत्मा, शुद्धात्मा परमात्मा है, ममल स्वभावी है, ध्रुव तत्व निरावरण चैतन्य ज्योति ज्ञायक ज्ञान स्वरूपी चिदानन्द भगवान आत्मा है और पर्याय एक समय की क्षणभंगुर नाशवान है। जगत का त्रिकालवर्ती परिणमन क्रमबद्ध निश्चित अटल है। अपने में कोई भाव विभावादि हैं ही नहीं, शुद्ध परम पारिणामिक भाव ही है; फिर क्या हो रहा है ? क्या होता है ? क्या आता है ? क्या जाता है ? उसको देखने की जरूरत ही क्या है ? देखने जानने में आता है तो ज्ञायक रहो, इन्हें कोई महत्व मत दो, परवाह मत करो, भयभीत मत होओ, तभी इन मिथ्यात्वादि कषाय कर्मोदय को जीतोगे । मैं आत्मा, शुद्धात्मा, परमात्मा हूँ, इसका निरन्तर स्मरण ध्यान रखो। यही कर्मादि को जीतना है। यह अपने आप गल जाते, विला जाते हैं। वैसे भी इनका कोई अस्तित्व नहीं है। सब असत् अनृत पर्याय है।
जगत की सत्ता, कर्मों का अस्तित्व है ही क्या ? सब भ्रम है, भ्रान्ति है । अपने अज्ञान के कारण वह सिर पर चढ़ा है। जब वस्तु स्वरूप जान लिया, भेदज्ञान तत्व निर्णय कर लिया, जिनेन्द्र के वचन सत्य हैं, ध्रुव हैं, प्रमाण हैं, यह स्वीकार कर लिया फिर क्या है ? हर दशा, हर परिस्थिति में निर्विकारी न्यारे ज्ञायक रहो, सहजानन्द में रहते हुए अपनी साधना करो, पुरूषार्थ को सक्रिय रखो। विवेक जाग्रत रखो और स्वयं निर्विकल्प निजानन्द में अपने ध्रुव धाम में डटे रहो । अब क्या होता है, क्या नहीं होता ? इसकी तरफ