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श्री कमलबत्तीसी जी
अपने जिन स्वभाव की दृष्टि सारे अनिष्ट से छुडाती है और जिन स्वभाव की रमणता, लीनता सारे कर्म बंधनों से मक्त करती है। अपने जिन स्वभाव की इष्टता और बहुमान, लगन, उत्साह ही मुक्ति मार्ग है।
प्रश्न - अपने जिन स्वभाव की इष्टता, लगन पूर्वक पुरूषार्थ तो करते हैं पर यह, बीच में पर पर्याय दिखने लगती है, उस समय सब गड़बड़ हो जाता है। अज्ञान जनित राग-रोषादि भाव होने लगते हैं ऐसे में क्या करें?
इसके समाधान में श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य महाराज आगे गाथा कहते हैं
गाथा-१८ अन्यान नह दिस्ट,न्यान सहावेन अन्मोय ममलं च । न्यानंतर न दिस्ट,पर पर्जाव दिस्टि अंतरं सहसा ॥
शब्दार्थ - (अन्यानं) अज्ञान को (नहु) नहीं (दिस्टं) देखो (न्यान सहावेन) ज्ञान स्वभाव से (अन्मोय) अनुमोदना, चिन्तन, लीनता (ममलं च) ममल स्वभाव (न्यानंतर) ज्ञान के अन्तराल, ज्ञान के अतिरिक्त (न) नहीं (दिस्ट) देखो (पर) शरीरादि पर द्रव्य (पर्जाव) अन्त: करण में चलने वाले भाव (दिस्टि) देखने में आया, दृष्टि गई (अंतरं) अन्तर पड़ जाता है (सहसा) तत्क्षण, एकदम।
विशेषार्थ - अपने शुद्ध स्वभाव का विस्मरण ही अज्ञान है। इस विस्मृति रूप अज्ञान मोह, राग-द्वेषादि भावों को मत देखो । ज्ञान स्वभाव के द्वारा अपने ममल स्वभाव में लीन रहो। स्वभाव से उपयोग का हटना, पर पर्याय की तरफ देखना ही ज्ञान से दूर होना है इसलिए ऐसे कर्म बंध कराने वाले ज्ञानान्तर को मत देखो, शुद्धात्म स्वरूप में लीन रहो। जिस समय, पर पर्याय पर दृष्टि जाती है उसी समय सतर्क सावधान हो जाओ। वहाँ से अपना उपयोग, दृष्टि हटा लो, वरना घोर अन्तराल हो जाता है, इसलिये पर पर्याय को मत देखो, ज्ञान स्वभाव में जाग्रत स्वस्थ होश में रहो।
अपने ज्ञान स्वभाव आत्मा के लक्ष्य से विकार नहीं होता; परन्तु स्व द्रव्य का लक्ष्य छोड़कर पर द्रव्य का, पर्याय का लक्ष्य करने से विकार होता है और उसी से भटकना पड़ता है, यही अज्ञान है। ज्ञान स्वभाव के लक्ष्य से राग से भिन्नता भाषित होने पर फिर उसमें लीनता नहीं होती।
श्री कमलबत्तीसी जी आत्मा का स्वभाव सिद्ध के समान है। जहाँ न मन के संकल्प-विकल्प हैं, न वचन का व्यापार है, न काय की चेष्टा है। व्यवहार आचरण, मन, वचन, काय के आधीन है इसलिये पराश्रय है, जो कुछ स्वाश्रय हो - आत्मा के ही आधीन हो, वही उपादान कारण है। जब उपयोग मात्र एक उपयोग के धनी की तरफ हो। अभेद, सामान्य एक आत्मा ज्ञान स्वभाव ही देखने योग्य हो, आप ही देखने वाला हो, इस निर्विकल्प समाधि भाव को या स्वानुभव को आत्म दर्शन कहते हैं। यह आत्म दर्शन एक गुप्त तत्व है, वचन से अगोचर है, मन से चिन्तवन योग्य नहीं है। केवल आप से ही अपने को अनुभवने योग्य है, वहाँ पर एक सहज ज्ञान है।
सर्व मन के विकारों को बंद करके.सर्व जगत के पदाथों से विरक्त होकर अपने उपयोग को अपने ही भीतर सूक्ष्मता से ले जाना चाहिये, तभी यह बोध होता है कि मैं ही परम ब्रह्म परमात्माईज्ञानानन्द स्वभावी, ज्ञान मात्र चेतन सत्ताविहाँ फिर यह कोई अज्ञान जनित विकार भाव होते ही नहीं हैं।
चैतन्य के चैतन्य में एकाग्र होने पर भेद नहीं रहता। आत्मा की पर्याय में अज्ञान रूपी उलझन पैदा होती है। उसे ज्ञान से सुलझाने पर वह नहीं रहती। अंश बुद्धि में राग - द्वेष, अज्ञान आदि भाषित होते हैं परन्तु स्वभाव बुद्धि होने पर वे कुछ भी भाषित नहीं होते। जैसे - पुराना मकान बेच देने के बाद उसके संभालने की चिन्ता नहीं होती, वैसे ही ज्ञानी को शरीर, मन, वाणी, अज्ञान जनित रागादि भावों के प्रति स्वामित्व भाव उड़ चुका होने से उनकी चिन्ता नहीं रहती, उस तरफ देखता ही नहीं है।
अज्ञान व राग-पसे आत्मा को दु:ख होता। उस पैतन्य स्वभाव को ही वीतरागता प्रगट कर बचाना ही आत्मा की क्या है,यही परम धर्म है।
स्व-पर का श्रद्धान होने पर, अपने को पर से भिन्न जाने तो स्वयं के आश्रय ज्ञानभाव से संवर, निर्जरा रूप, दर्शन, ज्ञान, चारित्र का उपाय करे और पर द्रव्यों का अपने से भिन्न रूप श्रद्धान होने पर, पर के लक्ष्य से होने वाले पुण्य पाप, आश्रव बंध को छोड़ने, उनसे बचने - हटने का श्रद्धान, ज्ञान होता ही है।
शुद्ध स्वरूप आत्मा में, ज्ञान स्वभाव में, मानो विकार भरे हों, अज्ञानी को ऐसा दिखाई देता है, यही भ्रम है परन्तु भेदज्ञान प्रगट होने पर वे ज्ञान रूपी
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