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श्री कमलबत्तीसी जी
शुद्धोपयोग ही वास्तव में मोक्ष का कारण है। ममल स्वभाव में रहना, ज्ञानानन्द स्वभाव में रहना, आत्मीक आनन्द में डूबे रहना, सब एक ही बात है, इस दशा में रहने पर ही सारे कर्म बन्ध क्षय होते हैं।
इस तत्व को भले प्रकार श्रद्धान में रखकर अन्तरात्मा मोक्षमार्गी होता है तब उसकी दृष्टि हर समय अपने आत्मा में रमण की रहती है। हमेशा वह अपने चिदानन्द चैतन्य स्वरूप का चिन्तवन करता है तथा अपने आत्मीक आनन्द में आनन्दित रहता है, वह आत्मा की शान्त गंगा में स्नान करना ही धर्म समझता है। इसके अतिरिक्त सर्व ही मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को अपना धर्म न समझ कर बंध का कारण अधर्म समझता है।
ज्ञानी सम्यकदृष्टि शुद्ध वीतराग भाव से अपने शुद्धात्म स्वरूप ज्ञानानन्द स्वभाव का स्मरण, चिन्तवन, ध्यान करता है। किसी प्रकार की कोई बांछा, चाहना नहीं रखता, उसके भीतर संसार के सब क्षणिक पदों से पूर्ण वैराग्य है। वह इन्द्र चक्रवर्ती आदि के पदों को भी नहीं चाहता है, न वह इन्द्रियों के तृष्णावर्धक भोगों को चाहता है, न वह अपनी पूजा या प्रसिद्धि चाहता है।
आत्मा शाश्वत है अत: उसकी ज्ञान आनन्द आदि शक्तियाँ भी शाश्वत हैं, उनकी ओर देखने से सम्यक्दर्शन ज्ञान होता है।
आत्म तत्व अनन्त शक्तियों का पिंड है, जिसे उसका आदर नहीं है, परन्तु पुण्य-पाप का आदर है, वह संसार में रुलता है। जब तक ज्ञान में तत्व की अयथार्थता है तब तक तत्व में स्थिरता नहीं होती। ज्ञान की विपरीतता में आत्म एकाग्रता नहीं जम पाती इसलिए कहते हैं कि आत्मा ज्ञानानन्द है, उसकी रूचि करो, आत्मीक आनन्द में लीन रहो, उसका अवलोकन करो, उसी का चिंतवन करो तो सारे कर्म मल क्षय हो जायेंगे। उसकी प्रतीति कर उसमें एकाग्र होने से केवलज्ञान प्रगट हो जाता है।
(१) नि:शंकित अंग ज्ञानी के भीतर सम्यग्दर्शन के आठ अंग भले प्रकार अंकित रहते हैं । इनका हमेशा चिंतवन मनन करता है। आत्मा के शुद्ध स्वभाव में और जिन परमात्मा में कोई संशय नहीं है। न उसे मरण का, रोगादि का व किसी अकस्मात् का भय है । मेरा आत्मा अमूर्तिक, अभेद्य, अछेद्य, अविनाशी है। मेरा कोई कुछ बिगाड़ नहीं कर सकता। इस तरह स्वरूप में नि:शंक व निर्भय होकर निःशंकित अंग पालता है।
(२) नि:कांक्षित अंग - ज्ञानी को कर्मों के आधीन क्षणिक, तृष्णावर्द्धक, पापबंधकारी इन्द्रिय सुखों की रंच मात्र लालसा या आसक्ति नहीं होती, वह
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श्री कमलबत्तीसी जी पूर्णपने वैरागी है। केवल अपने अतीन्द्रिय आनन्द का प्यासा है। उस परमानंद के सिवाय किसी प्रकार के अन्य सुख की तथा स्वानुभव के सिवाय अन्य किसी व्यवहार धर्म की व अन्य किसी पद की वांछा नहीं रखता, इस प्रकार निः कांक्षित अंग को पालता है।
(३) निर्विचिकित्सा अंग - ज्ञानी छहों द्रव्यों को, उनके गुणों को व उनकी होने वाली पर्याय को पहिचानता है। जो स्वाभाविक वैभाविक रूप चलती है। सर्व जगत की व्यवस्था को नाटक के समान देखता है। किसी को बुरा भला मानने का विचार न करके, घृणा भाव की कालिमा से दूर रहकर व समभाव की भूमि में तिष्ठ कर निर्विचिकित्सा अंग पालता है।
(४) अमूढदृष्टि अंग वस्तु स्वरूप को ठीक ठीक जानने वाला ज्ञानी जैसे अपने आत्मा को द्रव्यार्थिक नय व पर्यायार्थिक नय से एक व अनेक रूप देखता है। वैसे ही अन्य जगत की आत्माओं को देखता है, वह किसी बात में मूढ भाव नहीं रखता। वह धर्म, अधर्म, आकाश, काल चारों द्रव्यों को स्वभाव में सदा परिणमन करते हुए देखता जानता है। पुद्गल की स्वाभाविक व वैभाविक पर्यायों को पुद्गल की मानता है। जीव की स्वाभाविक व वैभाविक, नैमित्तिक पर्यायों को जीव की मानता है। उपादेय एक अपने शुद्ध द्रव्य को ही जानता है। इस तरह ज्ञानी वस्तु स्वरूप का ज्ञाता होकर अमूढदृष्टि अंग पालता है।
(५) उपगूहन अंग - ज्ञानी सर्व रागादि दोषों से परे रहकर, कषाय के मैल को मैल समझ कर उनसे रहित अपने वीतराग स्वभाव के अनुभव में जमकर, अपने भीतर अनन्त शुद्ध गुणों का प्रकाश करता है। दोषों से उपयोग को हटाकर आत्मीक गुणों को अपने में बढ़ाता हुआ उपगूहन अंग को पालता है। (६) स्थितिकरण अंग ज्ञानी जानता है कि राग द्वेष की पवन लगने से मेरा आत्मीक समुद्र चंचल होगा इसलिए वीतराग भाव में स्थिर होकर ज्ञान चेतना मय होकर आत्मानन्द के स्वाद में तन्मय होता हुआ स्थितिकरण अंग पालता है।
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(७) वात्सल्य अंग - ज्ञानी अपने उपयोग को आत्मा की भूमि से बाहर नहीं जाने देता। सर्व जगत की आत्माओं को एक समान शुद्ध व परमानन्द मय देखकर परम शुद्ध प्रेम में पगकर ऐसा प्रेमालु हो जाता है कि सर्व विश्व को एक शांति मय समुद्र बनाकर उस समुद्र में गोते लगाता है। शुद्ध विश्व प्रेम को रखकर वात्सल्य अंग को पालता है।