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श्री कमलबत्तीसी जी
(८) प्रभावना अंग - ज्ञानी अपने निर्मल उपयोग रूपी रथ में परमात्मा को विराजमान करके, ध्यान के मार्ग में रथ को चलाकर अपने आत्मा की परम शांत महिमा को विस्तार करके प्रभावना अंग को पालता है।
इस प्रकार ज्ञानी शुद्ध भाव से अपने जिन स्वभाव का स्मरण चितवन, ध्यान करता हुआ निर्वाण के अचल नगर ध्रुवधाम को प्रयाण करता है।
इसी प्रकार जो भव्य जीव अपने चिदानन्द चैतन्य शुद्ध ज्ञान भाव का चिन्तवन करते हैं, अपने ज्ञानानन्द स्वभाव में आनन्दित रहते हैं, ममल स्वभाव में लीन होते हैं, वह संसारी कर्म संयोग, व्याधि, जरा, मरण की वेदना की दाह से छूटकर शिव रूप मुक्त हो जाते हैं।
प्रश्न- ऐसे अपने आत्म स्वरूप का चिन्तवन मनन तो करते.ध्यान भी लगाते। पर यह पर पर्याय और शल्य तो लगी रहती .इसके लिये क्या करें? इसके समाधान में आचार्य श्री जिन तारण स्वामी गाथा कहते हैं
गाथा -१४ अप्पा परू पिच्छन्तो, पर पर्जाव सल्य मुक्तानं । न्यान सहावं सुद्धं, सुद्धं चरनस्य अन्मोय संजुत्तं ॥
शब्दार्थ - (अप्पा) आत्मा (परू)पर पदार्थ, समस्त जड़-चेतन द्रव्य (पिच्छन्तो) पहिचानने से, वस्तु स्वरूप जानने से (पर) शरीरादि पदार्थ (पर्जाव) भीतर चलने वाले भाव (सल्य) कांटा, एक प्रकार का विकल्प जो रह-रह कर चुभता है। इसके तीन भेद होते हैं- मिथ्या, माया, निदान (मुक्तानं) मुक्त हो जाते हैं, छूट जाते हैं (न्यान सहावं) ज्ञान स्वभाव (सुद्ध) शुद्ध है (सुद्धं चरनस्य) शुद्ध चारित्र को, सम्यग्चारित्र को (अन्मोय) अंगीकार, स्वीकार, अनुमोदना (संजुत्तं) लीन रहो, संयुक्त होओ।
विशेषार्थ- मैं आत्मा, समस्त पर पदार्थों से त्रिकाल भिन्न हूँ, इस प्रकार आत्मा को और पर को अर्थात् समस्त जड़ चेतन पदार्थों को भिन्न पहिचानने से पर पर्याय विभाव-भाव रूपशल्ये आदि समस्त दोष छूट जाते हैं, फिर यह होते ही नहीं हैं, रहते ही नहीं हैं।
अपना ज्ञान स्वभाव कर्मोदायिक विकारों से रहित सदैव शुद्ध है, इसी सत्स्वरूप में लीन रहो, यही शुद्ध चारित्र है, इसे अंगीकार करो।
जो कोई शरीरादि से उदास हो, राग द्वेष से रहित, ममकार से परे हो, सर्व
श्री कमलबत्तीसी जी लौकिक व धार्मिक आरम्भ से रहित हो, केवल एक अपने आत्मा के स्वभाव को भले प्रकार जानता है, वह पर पर्याय शल्यों से मुक्त हो जाता है।
जो अपने ही आत्म द्रव्य में लीन है, वही साधु या श्रावक सम्यग्दृष्टि है, वही साधक, दुष्ट कर्मों को क्षय करता है। अपने आत्मा के स्वभाव से अन्य सर्व चेतन या अचेतन या मिश्रद्रव्य पर द्रव्य हैं। ऐसा यथार्थ वस्तु स्वरूप जिनवाणी में जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है। आठों कर्मों से रहित, अनुपम ज्ञान शरीरी, नित्य शुद्ध अपना आत्मा ही स्व द्रव्य है, ऐसा जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है जो अपने शुद्ध आत्मा को ध्याते हैं, पर द्रव्यों से अपने उपयोग को हटाते हैं, शुद्ध चारित्र को पालते हैं, ज्ञान मार्ग पर भले प्रकार चलते हैं, वे ही निर्वाण को पाते हैं।
साधक को पहले यह उचित है कि आत्मा के स्वभाव और विभाव को जाने, इसका ज्ञान, यथार्थ निर्णय जिनवाणी या सद्गुरू द्वारा कर लेवे। आत्मा आप ही अपने भावों को कर्ता है, स्वभाव से यह शुद्ध भाव का ही कर्ता है। यह आत्म द्रव्य परिणमन शील है। यह स्फटिक मणि के समान है। स्फटिक मणि के नीचे रंग का संयोग हो तो वह उस रूप लाल, काला, पीला झलकती है। इसी तरह इस आत्मा में कर्मों के उदय के निमित्त से विभाव रूप या औपाधिक अशुद्ध भाव रूप परिणमन की शक्ति है। यदि कर्म के उदय का निमित्त न हो तो यह अपने निर्मल शुद्ध भाव में ही परिणमन करता है । मोहनीय कर्म के उदय से विभाव-भाव होते हैं, इसी से यह पर पर्याय, शल्ये पेरती हैं।
पुण्य या पाप कर्म के उदय शुभ व अशुभ योगों से अपने आत्मा को आत्मा के द्वारा रोककर, जो आत्मा अन्य पर द्रव्यों की इच्छा से विरक्त हो, सर्व परिग्रह की इच्छा से रहित हो, दर्शन, ज्ञानमयी आत्मा में स्थिर बैठकर आप से अपने को ही ध्याता है। भाव कर्म, द्रव्य कर्म, नो कर्म को रंचमात्र भी स्पर्श नहीं करता, केवल एक शुद्ध भाव का ही अनुभव करता है। शुद्ध ज्ञान स्वभाव में एकाग्र होता है यही शुद्ध सम्यग्चारित्र है, जिसको अंगीकार करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
निश्चय से परम तत्व एक आत्मा है। यही अपने स्वभाव में एक ही काल परिणमन करने से व जानने से समय है। यही एक ज्ञानमय होने से शुद्ध है। यही स्वतंत्र चैतन्य मय होने से केवली है। यही मनन मात्र होने से मुनि है। यही ज्ञानमय होने से ज्ञानी है, जो साधक ऐसे अपने ही आत्मा के स्वभाव में स्थिर होते हैं, आत्मस्थ होते हैं, उनके पर पर्याय
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