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श्री कमलबत्तीसी जी
प्रश्न-शुद्ध आत्मा का ज्ञान, ध्यान करना यह तो ठीक है पर इन कर्म संयोग, कर्म बंधनों का क्या होगा? इसके समाधान में आचार्य श्रीमद् जिन तारण स्वामी आगे गाथा कहते हैं
गाथा-१३ चिदानंद चितवन, चेयन आनंद सहाव आनंद। कम्म मल पयडि विपनं, ममल सहावेन अन्मोय संजुत्तं॥
शब्दार्थ - (चिदानंद) चैतन्य आनन्द, ज्ञान स्वभाव, निज स्वरूप का (चितवन) चिंतवन करो, स्मरण ध्यान करो (चेयन आनंद) चेतन आनन्द, ज्ञानानन्द (सहाव) स्वभाव (आनंद) आनन्दित रहो (कम्म मल) कर्म मल (पयडि) प्रकृति (विपनं) क्षय हो जायेंगी (ममल सहावेन) ममल स्वभाव में (अन्मोय) अनुमोदना करो (संजुत्तं) संयुक्त लीन रहो।
विशेषार्थ-शुद्ध चिदानन्द ज्ञान मयी, निज स्वरूप का चिंतवन करो, स्मरण ध्यान करो कि मैं शुद्ध चैतन्य केवलज्ञान स्वभावी सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा हूँ। अपने इसी ज्ञानानन्द स्वभाव में आनन्दित रहो, ममल स्वभाव की साधना करो, लीन रहो। ऐसी निर्विकल्प स्वानुभूति से कर्म मलों की समस्त प्रकृतियाँ क्षय हो जायेंगी। सब कर्म छूट जायेंगे और सहज में सहजानन्द में ही निर्वाण की प्राप्ति हो जावेगी।
आत्मा ही आनन्द का धाम है, उसमें अन्तर्मुख होने से ही सुख है। आत्मा सदा ही आनन्द मय, वीर्य मय, शिवमय परमात्म तत्व है। जिण सुमिरहु जिण चिंतवहु, जिण झायहु सुमणेण । सो झायंतह परमपऊ, लम्भइ एक्क खणेण ॥१९॥ योगसार शुद्ध भाव से आत्मा का स्मरण करो, आत्मा का चिंतवन करो, आत्मा का ध्यान करो, ऐसा ध्यान करने से एक क्षण में परम पद प्राप्त हो जाता है।
सुद्धप्पा अरू जिणवरह, भेउ म किमणि वियाणि। मोक्खहं कारण जोईया, णिच्छा एउ वियाणि ॥२०॥ योगसार
हे योगी! अपने शुद्धात्मा में और जिनेन्द्र में कोई भी भेद मत समझो, मोक्ष का साधन निश्चयनय से यही है।
जो जिणु सो अप्पा मुणहु, इह सिद्धतहु साल। इय जाणे विण जोयईह, डह माया चारू ॥२१॥ योगसार जो जिनेन्द्र परमात्मा है, वही यह आत्मा है ऐसा मनन करो, यह सिद्धान्त
श्री कमलबत्तीसी जी का सार है ऐसा जानकर, हे योगीजनों! मायाचार छोड़ो।
निर्वाण उसे कहते हैं, जहाँ आत्मा सर्व राग-द्वेष, मोहादि दोषों से मुक्त होकर सर्व कर्म कलंक से छूटकर शुद्ध स्वर्ण के समान पूर्ण शुद्ध हो जावे और सदा ही शुद्ध भावों में ही कल्लोल करे, निरन्तर आनन्दामृत का स्वाद लेवे, वह आत्मा का स्वाभाविक पद है। इस निर्वाण का साधन भी अपने ही आत्मा को परमात्म स्वरूप समझ कर उसी का ध्यान करना है।
श्री जिनेन्द्र का ऐसा उपदेश है कि रागी जीव कर्मों से बंधता है और आत्मस्थ वीतरागजीव कर्म से छूटता है। निर्वाण का पद शुभ क्रियाओं के करने से कभी प्राप्त नहीं हो सकता, वह तो आत्म ज्ञान की कला से सहज में ही मिलता है। इसलिए जगत के मुमुक्षुओं का कर्तव्य है कि वे आत्म ज्ञान की कला के बल से सदा ही उसी का यत्न करें। जो कोई पर पदार्थों में अहंकार, ममकार का त्याग करके एकाग्र भाव से अपनी आत्मा का अनुभव करता है, वह पूर्व संचय किये हुये कर्म मलों का नाश करता है तथा नवीन कर्मों का संवर भी करता है।
साधक को बाहरी चारित्र में निमित्त मात्र से संतोष नहीं करना चाहिये। जब आत्मा, आत्म समाधि में, आत्मानुभव में वर्तन करे। अपने ज्ञानानन्द स्वभाव में रहे तब ही मोक्षमार्ग सधता है क्योंकि जब तक शुद्धात्मा का ध्यान होकर शुद्धोपयोग का अंश प्रगट नहीं होगा तब तक संवर, निर्जरा तत्व प्रगट नहीं होते।
निश्चय से ऐसा समझना चाहिए कि मक्ति. निर्वाण का मार्ग एक आत्म ध्यान की अग्नि का जलना है। जब आत्मा अपने ही आनन्द में आनन्दित होता है, ममल स्वभाव में लीन रहता है तब कर्म मलों की प्रकृतियाँ अपने आप क्षय होती हैं।
यदि परिणामों में आत्मानुभव नहीं प्रगटे, आत्मीक आनंद न आवे, अपने ज्ञानानन्द स्वभाव में न रहे तो बाहरी चारित्र से शुभ भावों के कारण बंध होगा, संसार बढ़ेगा, मोक्ष का साधन नहीं होगा। जिसने सर्व कर्मों को दूर करके, सर्व देहादि पर द्रव्य का संयोग हटाकर अपने ज्ञान मय आत्मा को पाया है, वह परमात्मा-नित्य है, निरंजन, वीतराग है, ज्ञान मय है, परमानन्द स्वभाव का धारी है। वही शिव है, शान्त है, जिसको वेदों के द्वारा, शास्त्रों के द्वारा, इन्द्रियों के द्वारा जाना नहीं जा सकता, मात्र निर्मल ध्यान में निज स्वानुभूति में ही वह झलकता है । वही अनादि अनन्त अविनाशी शुद्ध आत्मा परमात्मा है।