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श्री कमलबत्तीसी जी (न्यानेन) ज्ञान से ज्ञानोपयोग ज्ञानाभ्यास से (न्यान) ज्ञान (विधु) वृद्धि होगी, बढ़ता है (ममल सुभावेन) ममल स्वभाव में रहने, लीन होने (सिद्धि संपत्तं) सिद्धि की सम्पत्ति, मुक्ति, परमानंद मयी, परमात्मपद, सिद्ध पद प्रगट होता है।
विशेषार्थ- निज आत्मा ही शुद्ध वीतराग जिन स्वरूप है, यही परम जिनेन्द्र त्रिलोकीनाथ देवों का देव है। आत्मा, अविनाशी पंचम ज्ञान मयी केवलज्ञान स्वरूप है। इसी अक्षय ज्ञान स्वभाव को संजोओ, देखो, साधना करो।
निज स्वभाव की साधना करने से, ज्ञानोपयोग से, ज्ञान से ज्ञान की वृद्धि, शुद्धि होती है। इससे अमृतमयी अतीन्द्रिय आनंदानुभूति होती है। परम शांत दशा होती है तथा अपने ममल स्वभाव में लीन होने से, परमानंद मयी सिद्धि की सम्पत्ति मुक्ति, अरिहन्त, सिद्ध पद की प्राप्ति होती है।
परमानंदमयी स्वाभाविक गति एक मोक्ष गति, सिद्ध पद ही है,जहां आत्मा पूर्ण शुद्ध, निराला निश्चल रहकर परमानंद का निरंतर भोग करता रहता है। मनसहित प्राणी को अपना हित विचारना चाहिए, यदि आत्मा के ऊपर दया भाव है तो इसे दु:खों के बीच नहीं डालना चाहिए, इसे भव भ्रमण से रहित करना चाहिए और जितना शीघ्र हो सके मोक्ष के निराकुल भाव में पहुंच जाना चाहिए। सद्गुरू इसका उपाय बताते हैं कि अपने ही शुद्ध आत्मा का ध्यान करो। भेदविज्ञान की शक्ति से अपने आत्मा के साथ जिन-जिन का संयोग है, उन उनको आत्मा से भिन्न विचार करके उनका मोह छोड़ दो।
भेदविज्ञान के बल से ज्ञानी को गर्म पानी में अग्नि की उष्णता और पानी की शीतलता भिन्न-भिन्न दिखती है। भेदविज्ञान से ही, बनी हुई तरकारी में लवण या तरकारी का स्वाद अलग-अलग अनुभव में आता है। भेदविज्ञान से दिखता है कि यह आत्मा, आत्मीक ज्ञान आनंद आदि रस से भरा हुआ स्वयं परम जिन वीतराग अरिहंत सर्वज्ञ स्वरूप जिनेन्द्र परमात्मा, सिद्ध परमात्मा है तथा यह कर्मादि संयोग, रागादि विकारी भाव इससे भिन्न हैं यह इनका कर्ता नहीं है। यह सब रागादि भाव भिन्न हैं और आत्मा भिन्न है।
सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्रमयी आत्मा ही शुद्ध तत्व है, यही मोक्ष मार्ग है, जो कोई इस अपने आत्मा में अपनी स्थिति करता है, रातविन इसी को ध्याता है, इसी का अनुभव करता है इसमें ही निरंतर
श्री कमलबत्तीसी जी विहार करता है। अपने आत्मा के अतिरिक्त अन्य आत्माओं को, सर्व पुदगलादि पर द्रव्यों को, सर्व भावों को स्पर्श तक नहीं करता है, वह अवश्य ही नित्य उदय रूप समयसार परमात्मा का अनुभव करता है। यह आत्मानुभव रूप ममल स्वभाव में रहना ही मोक्ष प्राप्ति सिद्धिकी सम्पत्ति है। योगी साधक को निरंतर ज्ञानोपयोग करते हुए इसी में लीन रहना चाहिए।
शुद्ध निश्चय से यह भले प्रकार जानकर कि मैं आत्मा शुद्ध द्रव्य हूं, सिद्ध के समान हूँ, अपने ही स्वभाव से परिणमन करने वाला हूँ | रागादि भावों का कर्ता नहीं हूँ, सांसारिक सुख-दु:ख का भोगने वाला नहीं हूँ। मैं केवल अपने ही शुद्ध भाव का कर्ता व शुद्ध आत्मीक आनंद का भोक्ता हूँ। मैं आठ कर्मों से और शरीरादि अन्य सब जीवों से अत्यन्त भिन्न निराला हूं तथा अपने गुणों से अभेद हूँ।
ज्ञानी अपने को ऐसा जानता है कि मैं आत्मा अबद्ध - अस्पृष्ट हूँ। आत्मा न तो कर्मों से बंधा है और न स्पर्शित है। मैं अनन्य हूँ, जैसे कमल जल से निर्लेप है, वैसे ही आत्मा है। यह नारकी, देव, तिर्यंच, मनुष्य नहीं है। जैसे मिट्टी अपने बने, बर्तनों में मिट्टी ही है, ऐसे ही आत्मा-चैतन्य मयी त्रिकाल शाश्वत है। मैं नियत या निश्चल हूँ, जैसे पवन के झकोरे के बिना समुद्र निश्चल रहता है, वैसे ही यह आत्मा कर्म के उदय के बिना निश्चल है. मैं अविशेष अर्थात् सामान्य हूँ, जैसे-स्वर्ण अपने पीत, भारी, चिकने आदि गुणों से अभेद या सामान्य एक रूप है। मैं असंयुक्त हूँ, जैसे- पानी स्वभाव से गर्म नहीं है, ठंडा है, वैसे ही यह आत्मा स्वभाव से परम वीतराग है, रागीद्वेषी, मोही नहीं है।
शुद्ध निश्चय नय की दृष्टि पर से भिन्न आत्मा को देखने की होती है, जैसे-वास्तव में मैले पानी के भीतर, पानी मैल से जुदा है निर्मल है, वैसे ही यह आत्मा शरीर से,आठ कर्मों से,रागादि सर्व पर भावों से जदा है। इस तरह आत्मा का प्रेमी होकर सर्व बाह्य इंद्र, चक्रवर्ती, नारायण आदि लौकिक पदों से तथा संसार,शरीर भोगों से विरक्त उदासीन होकर उनका मोह छोड़कर अपने शुद्धात्म तत्व का मनन और ध्यान करना इसी से सिद्धि की सम्पत्ति, मुक्ति की प्राप्ति होती है।