________________
श्री कमलबत्तीसी जी आलम्बन, पराश्रयपने से कभी मुक्ति नहीं होती।
प्रश्न-जब स्वयं ही देव, गुरू,धर्म है, पूर्णमुक्त, शुद्ध सिद्ध है तो फिर संसार में क्यों भटक रहा है और सच्चे देव, गुरू, धर्म की बात क्यों करता है?
समाधान-जीव का अपना स्वभाव ही धर्म है, परम धर्म है। अपने अंतरात्मा का जागरण ही गुरू और परम गुरू है। पूर्ण शुद्ध स्वभावमय हो जाना ही देव और परम देव है। शुद्ध निश्चयनय से जीव का सत्स्वरूप यही है; पर अनादि से अपने ऐसे सत्स्वरूप को भूला अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि बना संसार में भटक रहा है। जब भेदज्ञान, तत्व निर्णय द्वारा ऐसे अपने सत्स्वरूप को स्वीकार करता है, तद्रूप रहता है तो स्वयं गुरू और देव हो जाता है।
इसको अपने सत्स्वरूप का बोध कराने में, वीतरागी सच्चे देव, गुरू निमित्त होते हैं। वह धर्म का सत्स्वरूप,जीव को अपना सत्स्वरूप बताते हैं इसलिए निमित्त अपेक्षा व्यवहार से उनका स्मरण, बहुमान, नमस्कार करते हैं परन्तु कोई देव गुरू धर्म किसी को अपने साथ ले जाकर मुक्त नहीं करा सकते। जिस जीव की पात्रता पकती है, काललब्धि आती है, जीव स्वयं जागता है, तब निमित्त मिलते हैं लेकिन उनको ही पकड़कर बैठ जायें, उनकी ही पूजा, वन्दना, भक्ति करते रहें तो तीन काल भी मुक्त हो सकते नहीं हैं। अपने स्व स्वरूप को पहिचान कर उसी का आश्रय करने, उसी में लीन रहने पर देवत्व पद प्रगट होता है, यही जैन दर्शन में जिनेन्द्र परमात्मा की स्वतंत्रता की घोषणा है।
मोक्ष अपनी आत्मा का शुद्ध स्वभाव है तब उसका उपाय भी केवल एक अपने ही शुख आत्मा का ध्यान है।
इन्द्र पद, चक्रवर्ती पद, तीर्थंकर पद यह सब कर्म कृत उपाधियां हैं। आत्मा इन सबसे भिन्न, निरंजन प्रभु देव है। सिद्ध के समान आत्मा का ध्यान करना चाहिए। भेदविज्ञान के प्रताप से ध्यान करने वाला, आप ही अपने को परमात्म स्वरूप देखता है। ज्ञानी को अपना आत्मा, रागादि भाव कर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म और शरीरादि नो कर्म से भिन्न दिखता है।
ज्ञानी को जैसे अपना आत्मा सर्व पर भावों और कर्मादि से भिन्न दिखता है। वैसे ही अन्य संसारी प्रत्येक आत्मा, सर्व पर भावों से भिन्न, शुद्ध चैतन्य स्वरूप दिखता है। सर्व ही सिद्ध और संसारी आत्मायें एक समान परम निर्मल, वीतराग जिन स्वरूप, भगवान आत्मा ज्ञानानंद स्वभावी हैं, इस दृष्टि
श्री कमलबत्तीसी जी को सम्यक्त्व, यथार्थ निर्मल, निश्चय शुद्ध दृष्टि कहते हैं। शुद्ध दृष्टि से देखने का अभ्यास करने वाले के भावों में समभाव का साम्राज्य हो जाता है। राग-द्वेष मोह का विकार मिट जाता है। इसी सम भाव में एकाग्र होना ही ध्यान है। यही ध्यान-अग्नि है जिसमें सर्व कर्म बंधन जल जाते हैं और यह आत्मा शीघ्र ही मुक्त शुद्ध सिद्ध स्वयं देव, परम देव हो जाता है।
प्रत्येक जीव में बहिरात्मा (संसारीजीव) अंतरात्मा (गुरू) परमात्मा (देव) तीनों पर्यायों के होने की शक्ति है। अरिहन्त, सिद्ध में परमात्मापने की शक्ति व्यक्त और प्रगट है। शेष दो शक्तियां अप्रगट हैं। इसी तरह संसारी जीवों में जो बहिरात्मा हैं, उनमें बहिरात्मा की पर्याय तो प्रगट है परन्तु उसी समय अंतरात्मा और परमात्मा की पर्यायें शक्ति रूप से अप्रगट हैं, यद्यपि तीनों की शक्तियां एक ही साथ हैं।
जो अपने आत्मा को यथार्थ न जाने, न श्रद्धान करे, न अनुभव करे वह बहिरात्मा है। जो अपने आत्मा को सच्चा जैसा का तैसा श्रद्धान करे, जाने अनुभव करे वह अन्तरात्मा है और जो अपने स्वभाव में लीन रहे, वह परमात्मा है।
प्रयोजन यह है कि बहिरात्मापना त्यागने योग्य है क्योंकि इस दशा में अपने आत्मा के स्वरूप का श्रद्धान, ज्ञान, आचरण नहीं होता है। उपयोग संसारासक्तमलिन होता है तथा आत्मज्ञानी होकर अन्तरात्मा दशा में परमात्मा का ध्यान करके अर्थात् अपने ही आत्मा को परमात्मा रूप अनुभव करके कर्मों का क्षय करके परमात्मा होना योग्य है। धर्म के साधन में प्रमाद नहीं करना चाहिए। प्रश्न-इसकी साधना का उपाय क्या है?
इसके समाधान में श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज आगे गाथा कहते हैं -
गाथा-१२ जिन च परम जिनय, न्यानं पंचामि अपिर जोय । न्यानेन न्यान विध, ममल सुभावेन सिद्धि संपत्तं ॥
शब्दार्थ- (जिन) निज आत्मा, अंतरात्मा (च) और (परम जिनयं) परम जिन-परमात्मा, जिनेन्द्र भगवान (न्यानं) ज्ञान में (पंचामि) पंचम केवलज्ञान (अषिरं) अक्षय स्वभाव, जिसका कभी क्षय नहीं होता (जोयं) संजोओ, देखो
३१